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हूं। नसरुद्दीन ने उसे बहुत जोर से चांटा मारा और कहा, बेईमान, यह सोच कर मन को कितनी पीड़ा होती है कि कितना भोजन जो मैं कर सकता था, नहीं कर पाया! तूने पहले क्यों न बताया? यह तो मुझे भी शक था कि जितना भोजन मैं करता हूं, वह भोजन करने की सीमा नहीं है। यह तो मुझे भी शक था कि जितना मैं भोजन करता हूं, वह भोजन करने की सीमा नहीं है। और यह मुझे भी पता है कि भोजन की आखिरी सीमा पेट का फट जाना है। पूरा भोजन किया जाए तो पेट फट जाए, वहां तक।
अज्ञानी सोचता है, मैं भोजन कर रहा हूं। एक दूसरा अज्ञानी है, जो सोच सकता है कि मैं उपवास कर रहा हूं। लाओत्से दोनों को अज्ञानी कहेगा। क्योंकि दोनों ही अपने को कर्ता मानते हैं। एक करने में, एक छोड़ने में। लाओत्से कहेगा, ज्ञानी तो वह है, जो विमुख नहीं होता। जो भोजन को, मैं करता हूं, ऐसा नहीं मानता। भूख करती है। देखता रहता है। भूख लगती है, भोजन कर लेता है; नहीं लगती है, नहीं करता है। भूख नहीं लगती है, तो उपवासा रह जाता है; भूख लगती है, तो भोजन कर लेता है। न तो भूख से हटता है, न भूख को आग्रहपूर्वक भरता है। भूख के साथ कोई छेड़खानी नहीं करता। भूख की प्रक्रिया का साक्षी-भाव से व्यवहार करता है।
ताकुआन नाम के फकीर के पास कोई गया है। और पूछता है ताकुआन से कि तुम्हारी साधना क्या है?
तो ताकुआन कहता है, मेरी और कोई साधना नहीं है। मेरे गुरु ने तो इतना ही कहा है कि जब नींद आए, तब सो जाना; और जब भूख लगे, तब भोजन कर लेना। तो जब मुझे नींद लगती है, मैं सो जाता हूं। और जब नींद टूटती है, तब उठ आता हूं। जब भूख लगती है, तब भोजन ले लेता हूं; जब नहीं लगती है, तब नहीं लेता हूं। जब बोलने जैसा होता है, तो बोल देता हूं; और जब मौन रहने जैसा होता है, तो मौन रह जाता हूँ।
तो वह आदमी कहता है, यह भी कोई साधना है! यह कोई साधना है?
पर ताकुआन कहता है, पता नहीं यह साधना है या नहीं। क्योंकि मेरे गुरु ने कहा कि साध सकते हो तुम, यही अज्ञान है। साध सकते हो तुम, यही अज्ञान है। तो मैं कुछ साध नहीं रहा हूं। अब तो जो होता है, उसे देखता रहता हूं। पता नहीं, यह साधना है या नहीं! इतना तुमसे कहता हूं कि जब से ऐसा स्वीकार किया है नींद को, भूख को, उठने को, सोने को, जागने को, तब से मैं परम आनंद में हूं, तब से दुख मेरे ऊपर नहीं आया है। क्योंकि मैंने सभी स्वीकार कर लिया है। अगर दुख भी आया है, तो अब मैं उसे दुख करके नहीं पाता हूं, क्योंकि स्वीकार कर लिया है। सोचता हूं कि घट रहा है ऐसा।
ध्यान रहे, दुख भी तभी दुख मालूम पड़ता है, जब हम अस्वीकार करते हैं। दुख का जो दंश है, वह दुख में नहीं, हमारी अस्वीकृति में है। दुख में पीड़ा नहीं है, पीड़ा हमारे अस्वीकार में है कि ऐसा नहीं होना चाहिए था, और हुआ, इसलिए पीड़ा है। अगर मैं ऐसा जानूं कि जो हुआ, वैसा ही होता, वैसा ही होना चाहिए था, वही हो सकता था, तो दुख का कोई दंश, दुख की कोई पीड़ा नहीं रह जाती। सुख के छिन जाने में कोई पीड़ा नहीं है। सुख नहीं छिनना चाहिए था, मैं बचा लेता, बचा न पाया, उसमें पीड़ा है। अगर मैं जानूं कि सुख आया
और गया; जो आता है, वह चला जाता है; अगर मेरे मन में यह खयाल न हो कि मैं बचा सकता था, तो पीड़ा का फिर कोई सवाल नहीं है।
तो ताकुआन कहता है, मुझे पता नहीं कि साधना क्या है। इतना मैं जानता हूं कि जब से मैंने ऐसा जाना और जीया है, तब से मैंने दुख को नहीं जाना।
लाओत्से कहता है, वे विमुख नहीं होते हैं। वे जानते हैं कि चीजें अपने आप घटित होती हैं।
इस बात को समझने के लिए महावीर को थोड़ा सा समझना बहुत उपयोगी होगा।
महावीर का एक सूत्र इसके बहुत करीब है। और कीमती सूत्र है। महावीर जहां-जहां धर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, जहां-जहां, वहां उनका अर्थ धर्म से कभी भी मजहब या रिलीजन नहीं होता। महावीर का धर्म से अर्थ होता है, वस्तुओं का स्वभाव। महावीर का सूत्र है धर्म के लिए: वत्थू सहाओ धम्म। जो वस्तु का स्वभाव है, वही धर्म है। आग जलाती है, यह उसका स्वभाव है। पानी गड्ढे की तरफ जाता है, यह उसका स्वभाव है। बच्चा जवान होता है, यह उसका स्वभाव है। सुख आता है, जाता है, यह उसका स्वभाव है। कोई चीज ठहरती नहीं जगत में, यह जगत का स्वभाव है। आदमी जन्मता है और मरता है, यह नियति है, यह स्वभाव है। महावीर कहते हैं, यह सब स्वभाव है। इसे अगर तुम ठीक से जान लेते हो कि यह स्वभाव है, तो तुम मुक्त हो-इसी क्षण।
स्वभाव के विपरीत लड़ कर ही हम परेशान हैं। हम सब लड़ रहे हैं, स्वभाव से लड़ रहे हैं। शरीर बूढ़ा होगा, हम लड़ेंगे; शरीर रुग्ण होगा, हम लड़ेंगे। वह सब स्वभाव है। इस जगत में जो भी होता है, वह सब स्वाभाविक है।
लाओत्से कहता है, सभी बातें अपने आप घटित होती हैं, परंतु वे जो ज्ञानी हैं उनसे विमुख नहीं होते। विमुख होने का कोई कारण नहीं है। विमुख होने में तो फिर वही बात मन में आ जाएगी कि मैं विमुख हो सकता हूं।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज