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ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-8 स्वामित्व और श्रेय की आकांक्षा से मुक्त कर्म-प्रवचन-आठवां
अध्याय 2: सूत्र 4 सभी बातें अपने आप घटित होती है, परंतु वे उनसे विमुख नहीं होते; उन्हें वे जीवन प्रदान करते हैं,
किंतु अधिकृत नहीं करते। वे इन समस्त प्रक्रियाओं से गुजरते हैं,
परंतु इनके स्वामी नहीं बनते; कर्तव्य निभाते हैं, पर श्रेय नहीं लेते।
चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता।
इसलिए ज्ञानी निष्क्रिय भाव से अपने कार्यों की व्यवस्था तथा निःशब्द द्वारा अपने सिद्धांतों का संप्रेषण करते हैं। इसके बाद के सूत्र में लाओत्से कहता है, “सभी बातें अपने आप घटित होती हैं।' ताओ के आधारभूत सिद्धांतों में एक यह है: सभी बातें अपने आप घटित होती हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे घटित करने के लिए हमारी जरूरत होती हो; हमारे बिना ही सब कुछ घटित होता है। नींद आती है, भूख लगती है, जन्म होता है, मृत्यु होती है, वह सब अपने आप घटित होता है। लेकिन जो अपने आप घटित होता है, उसे भी हम मान कर चलते हैं कि हम घटित करते हैं। लाओत्से की दृष्टि में सबसे बड़ी भांति मनुष्य की यही है कि जो घटित होता है, उसका वह कर्ता बन जाता है। जो घटित होता है, उसका कर्ता बन जाना ही बड़े से बड़ा अज्ञान है।
लाओत्से यह भी नहीं कहता कि तुम चोरी छोड़ दो; लाओत्से यह भी नहीं कहता कि तुम बेईमानी छोड़ दो। लाओत्से कहता है, न तो तुम कुछ कर सकते हो और न तुम कुछ छोड़ सकते हो। क्योंकि छोड़ने की बात तो तभी हो सकती है, जब हम कुछ करते हैं। यदि मैंने कुछ किया है, तो मैं कुछ छोड़ भी सकता हूं। यदि मैं करता ही नहीं हूं, तो छोड़ने का कोई उपाय भी नहीं है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि त्यागवादी सारी धारणाएं लाओत्से के इस सिद्धांत के विपरीत खड़ी हैं। त्यागवादी मानता है कि मैं छोड़ सकता हूं। लाओत्से कहता है, तुम जब कर ही नहीं सकते, तो तुम छोड़ कैसे सकोगे? लाओत्से कहता है, कर्म में न तो करने की संभावना है, न छोड़ने की। हां, तुम कर्ता बन सकते हो। बस, इतनी स्वतंत्रता है तुम्हें! और तुम कर्ता न बनो, इसकी स्वतंत्रता है तुम्हें। जो घटित हो रहा है, वह घटित होता चला जाएगा।
लाओत्से के समय से प्रचलित चीन में एक मजाक है। एक युवा अपनी प्रेयसी के साथ समुद्र के तट पर गया है। चांदनी रात है। और समुद्र में जोर से लहलहा कर लहरें आ रही हैं तट की तरफ। वह युवक आकाश की तरफ मुंह उठा कर सागर से कहता है, हे सागर! लहरा, जोर से लहरा! अपनी पूरी शक्ति से लहरों को उठा!
इतनी सुंदर रात और लहरें तो उठ ही रही हैं, लहरें उठ कर तट की तरफ आ ही रही हैं। उसकी प्रेयसी कहती है, आश्चर्य, तुम्हारी इतनी सामर्थ्य! मुझे कभी पता न था कि सागर तुम्हारी मानता है। वह प्रेयसी कहती है, तुम्हारी इतनी सामर्थ्य! मुझे कभी पता ही नहीं था कि सागर तुम्हारी इतनी मानता है। तुमने कहा, लहरें उठो, और लहरें उठने लगीं! और तुमने कहा, लहरें आओ तट की तरफ, और लहरें तट की तरफ आने लगी!
लाओत्से के समय से वह मजाक प्रचलित है। और लाओत्से कहा करता था, जिंदगी में सब ऐसा ही है। लहरें उठ ही रही हैं, तट के किनारे खड़े होकर हम कहते हैं, लहरें उठो! और अपने मन में यह भ्रांति पाल लेते हैं कि लहरें हमने उठा दी हैं।
लाओत्से कहता है, न तो तुम कर्ता बन सकते हो, न तुम त्यागी बन सकते हो। तुम सिर्फ इतने ही सत्य से अगर परिचित हो जाओ कि वस्तुएं अपने से घटित होती हैं, किसी की भी उनके घटित होने के लिए आवश्यकता नहीं है। वस्तुओं का स्वभाव घटित होना है, ऐसी प्रतीति हो जाए। तो लाओत्से कहता है, ज्ञानी उसे कहता हूं मैं, सभी बातें अपने आप घटित होती हैं, ऐसा जो जानता है। परंतु वे उनसे विमुख नहीं होते। क्योंकि जब अपने से ही घटित होती हैं, तो ज्ञानी उनसे विमुख नहीं होते। विमुख होने का सवाल तो तभी है, त्याग करने का सवाल तो तभी है, वैराग्य का सवाल तो तभी है, जब मैं उन्हें घटित कर रहा हूं।
समझें। भूख लगती है, तो अज्ञानी ज्यादा खा लेता है। सोचता है, मैं खा रहा हूं। ज्यादा तो वह भी नहीं खा सकता।
नसरुद्दीन के जीवन में उल्लेख है कि अपने एक शिष्य के साथ वह यात्रा पर है, तीर्थ-यात्रा पर। वह रोज देखता है कि शिष्य जब भोजन करता है, तो भोजन करने के बाद अपने शरीर को हिलाता है, हिला कर फिर भोजन करता है। वह रोज देखता है यह, महीनों हो गए। एक दिन उसने कहा कि देख, यह मामला क्या है? तू भोजन करता है, फिर हिलता है, फिर भोजन करता है, फिर हिलता है। उस यवक ने कहा कि आपको शायद पता नहीं कि जरा हिल कर मैं फिर शरीर के भीतर जगह बना लेता हं, फिर थोड़ा भोजन कर लेता
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