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ये जो लाओत्से के वक्तव्य हैं, ये श्रेष्ठतम वक्तव्यों में से कुछ हैं, जो मनुष्य ने कभी भी दिए हैं। बहुत आखिरी जो कहा जा सकता है, जिसके आगे कहने का कोई उपाय ही नहीं बचता, उस बाउंड्री लैंड पर, उस सीमांत पर लड़खड़ाता हुआ आदमी है लाओत्से, जिसके पार निःशब्द है। बस आखिरी सीमा पर वह कुछ कह रहा है। तो वहां तक जब कोई पहुंचता है, तो समझ में आता है; नहीं पहुंचता, तो नहीं समझ में आता है। उसमें लाओत्से का कसर नहीं है।
फिर कुछ बातें हैं, जो तब तक आपको पता नहीं चलेंगी, जब तक आपके अनुभव का हिस्सा न बन जाएं। एक छोटा बच्चा है। उससे हम कुछ ऐसी बातें करें, जो उसके अनुभव का हिस्सा नहीं हैं। सुन लेगा, बहरे की तरह; भूल जाएगा। वे उसकी स्मृति में भी टंकेंगी नहीं। क्योंकि स्मृति में वही टंक सकता है, जो अनुभव से मेल खा जाए। भूल जाएगा। हमारा अनुभव भी तो कहीं मेल खाना चाहिए!
अब लाओत्से जो भी कहता है, हमारा अनुभव कहीं भी मेल नहीं खाता। बस लाओत्से की किताब बची है, यही क्या कम है! हमारे अनुभव में कहीं मेल नहीं खातीं ये बातें। अब लाओत्से कहता है, बिना कुछ किए जो करने में समर्थ है, वही ज्ञानी है; बिना बोले जो कह देता है, वही सत्यवक्ता है। जो हिलता-डुलता नहीं, और सब कर लेता है! जिसके ओंठ नहीं खुलते, और संदेश संवादित हो जाते हैं!
अब हमारे अनुभव में यह कहीं भी तो नहीं आता। हम तो चिल्ला-चिल्ला कर थक जाते हैं, फिर भी संदेश संवादित नहीं होता। तो हम कैसे मानें कि बिना बोले संवादित हो जाएगा? बोल-बोल कर संवादित नहीं होता। वही-वही बात कहते जिंदगी बीत जाती है, और कोई संवाद नहीं होता। इतना इंतजाम करते हैं, कुछ इंतजाम नहीं हो पाता। आखिर में भिखारी के भिखारी ही मर जाते हैं। इतनी दौड़-धूप मचाते हैं, इतनी व्यवस्था, इतना मैनेजमेंट, और आखिर में भिखारी के भिखारी ही मर जाते हैं। और लाओत्से कहता है, मैनेज ही मत करो, व्यवस्था करो ही मत, बस मौजूद हो जाओ, व्यवस्था हो जाएगी। हम कहेंगे, पागल हो! तुम्हारे साथ हम पागल होने को राजी नहीं
लाओत्से के साथ तो जाने को जो लोग राजी होंगे, वे वे ही हो सकते हैं, जो हमारी तथाकथित मनुष्यता के पागलपन से भलीभांति परिचित हो गए हैं; जो हमारे होने से इस बुरी तरह से विषाद से भर गए हैं; जो हमारे होने के ढंग को इतना व्यर्थ जान गए हैं; जिन्होंने देख लिया भलीभांति कि जिसको हम समझदारी कहते हैं, वह नासमझी है; और जिन्होंने देख लिया कि जिसको हम बुद्धिमानी कहते हैं, वह सिर्फ बुधूपन है; जिनको यह साफ-साफ खयाल में आ गया, वे ही केवल लाओत्से के साथ कदम उठाने को राजी होंगे।
और लाओत्से के साथ कदम उठाना खतरे में कदम उठाना है। क्योंकि सुरक्षा का तो कोई आश्वासन लाओत्से नहीं देता। लाओत्से तो ऐसी खतरनाक राह बताता है, जहां आप खो जाएंगे, बचेंगे नहीं। लाओत्से तो कहता है, खोने का ही मार्ग है यह, मिट जाने की ही गैल है यह। अब उसके साथ, उसके साथ जाने को वही राजी होगा, जो यह पक्का समझ ले कि पाकर जब कुछ नहीं पाया, तो खोकर देख लें! दौड़ कर जब नहीं पाया, तो अब खड़े होकर देख लें! और जब बुद्धिमानी से नहीं मिला, तो अब पागल होकर देख लें!
तो बहुत कम लोग उतना साहस कर पाते हैं। इसलिए बहुत कम लोग उस यात्रा पर जा पाते हैं।
आज इतना ही, शेष कल।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज