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ये चौदह हजार मुनिवरों में सबसे उत्कृष्ट परिणाम में कौन से महर्षि हैं? कृपा करके भगवन! उस पुण्य महामुनि का नाम बतायें ।
भगवान श्री महावीर देव ने स्वमुख से कहा, 'राजन् ! चौदह हजार अणगार में कांकदी का अणगार धन्ना ऋषि । धन्य हैं वे मुनि जो चारित्र में बढ़ा है, तप में जल चुका है। जो सदा छठ्ठी के पारणे पर छठ्ठी करता है और पारणे में मक्खी भी न बैठे ऐसा रुक्ष आहार लेता है, वह ऋषि जंगलों में एकांत स्थान पर कायोत्सर्ग में रहता है । '
प्रभु के मुख से बात सुनकर मगध का नाथ श्रेणिक चकित हो गया एवं मनोमन बोल उठा, 'अहा धन्य वह महामुनि ! जिसके अनुपम तपोबल की स्वयं प्रभु महावीर प्रशंसा करते हैं । वंदन है उन महर्षि के चरणों में ।' ऐसा सोचकर श्रेणिक वहाँ से उठकर तपोवन में पधारे, जहाँ पर धन्ना अणगार ध्यानस्थ अवस्था में खड़े थे । धन्नाजी तुरंत तो न दिखाई पड़े लेकिन खूब घूर घूर कर देखने पर एक अस्थिपंजर जैसा उन्हें कुछ दिखा। वे ही महर्षि धना अणगार थे ।
छठ्ठी के पारणे में रसकस बगैर का आंबेल का आहार; इससे तपस्वी की देह श्याम - कोयले समान हो चुकी थी। आँखे गहरी धँस गई थी। हाथपैर सूख गये थे । काया खून-माँस रहित अस्थिपंजर समान हो चुकी थी । शरीर क्षीण जरूर था लेकिन आत्मा पुष्ट थी । आत्मा के अनंत बल की महक से उन्होंने मोह, मान, माया क्रोध पर विजय पायी थी । श्रेणिक महाराजा वंदना करके लौट चले ।
कालक्रमानुसार महर्षि धन्नाजी ने प्रभु से आज्ञा लेकर वैभार गिरिवर पर एक माह का अनशन किया। माह पूर्ण होते ही समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर सर्वार्थसिद्ध विमान में अनुत्तरवासी देव बने; वहाँ से महाविदेह में जाकर अंत में मोक्ष पायेंगे ।
धनाजी को आज भी हम याद करते हैं।
मुनिवर चौदह हजार में श्रेणिक सभा बीच में ' वीर ने प्रशंसा की जिसकी धन्य धन्ना अणगार ।
जिन शासन के चमकते हीरे • ५८