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दी।
भद्रा माता के आँगन में दीक्षा महोत्सव प्रारंभ हुआ। कांकदी के नाथ जितशत्रु राजा धन्नाजी के त्याग की बात सुनकर भद्रा माता के घर पधारे। धन्ना जैसे वीर की जननी होने के नाते उन्हें धन्यवाद दिया और उत्सव मनाने का लाभ स्वयं को मिले - ऐसी मांग की।
राजवीं ने धन्नाजी को आशीर्वाद दिया, धन्नाजी को स्नान कराया। मनोहर वस्त्र और मूल्यवान् आभूषण पहिनाये। विशेष रूप से तैयार की गई पालकी में घुमाया। खूब आडंबर पूर्ण निकला जुलुस दुंदुभि आदि वाद्य बजाता हुआ नगर के मार्गो से गुजरकर उद्यान पर रूका। इस जूलुस के मुख्य घुडसवार बनने का लाभ जितशत्रु राजा ने लिया। ___इशान दिशा में जाकर धन्नाजी ने वस्त्र-आभूषण उतारे एवं सब कुछ माताजी को सौंपा।
भद्रा माता का हर्ष संभाले नहीं संभल रहा था। उन्होंने वीर प्रभु के पास आकर प्रार्थना करते हुए कहा, 'प्रभु मेरे लाड़ले की भिक्षा का आपको प्रतिलाभ दे रही हूँ। आप उसका स्वीकार करें। आज से वह मेरा न रहकर समस्त संसार व चौदह राजलोक के जीवों का सच्चा, रखवाला बन रहा है, उसे आप संभालना।'
प्रभुश्री ने महारथी धन्ना को दीक्षा दी। उस दिन धन्नाजी ने भगवान श्री महावीर देव को बिनती की, 'हे करुणासागर! आज से छठ्ठी के पारणे आंबेल और फिर छठ्ठी यावज्जीव तक मुझे करने हैं।' भगवान ने धन्नाजी को उनकी इच्छानुसार यह घोर प्रतिज्ञा दी।
धन्नाजी ने इस प्रतिज्ञा का पालन अटलरूप से किया। गहन जंगल - एकांत स्थान में काउसग्ग ध्यान में स्थिर रहते। छठ्ठी के पारणे, छठ्ठी तक के तप चालू रहे। आत्मा संयमी जीवन के सुखरस में टहलती रही।
एक प्रातः प्रभु महावीरं अपने चौदह हजार मुनिवरों के साथ राजगृही के गुणशील नामक उद्यान में पधारे। देवों द्वारा रचित समवसरण में बिराजित होकर भगवान ने दीक्षा दी। यह देशना सुनने राजगृही के राजा श्रेणिक भी पधारे थे।
देशना पूर्ण होने पर श्रेणिक ने परमात्मा को प्रश्न किया, 'भगवंत! आपश्री का साधू समुदाय त्याग, तप और संयम के गुण से उत्कृष्ट है, फिर भी आपके
जिन शासन के चमकते हीरे • ५७