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________________ २० -श्री ढंढणकुमार श्रीकृष्ण वासुदेव को ढंढणा स्त्री से ढंढणकुमार नामक पुत्र हुआ था। उम्रलायक होते ही नेमिनाथ से धर्म सुनकर संसार से विरक्त होकर उन्होंने दीक्षा ले ली। दीक्षा लेने के बाद वे गोचरी के लिए जाने लगे लेकिन पूर्व भव के कर्मों का उदय होने से जहाँ जहाँ गोचरी के लिए जाते वहाँ वहाँ से आहारादिक न मिलता, इतना ही नहीं उनके साथ यदि कोई साधु होता तो उसे भी गोचरी न मिलती। ऐसा हमेशा होने लगा। सब साधुओं ने मिलकर श्री नेमिनाथ भगवान को पूछा : 'हे परमात्मा! आप जैसे के शिष्य और श्रीकृष्ण वासुदेव जैसे के पुत्र को धार्मिक, धनाढ्य और उदार गृहस्थवाली इस नगरी में श्री ढंढणमुनि को गोचरी क्यों नहीं मिलती?' भगवान ने कहा, 'उनके पूर्व भव के कर्मों के उदय के कारण ऐसा होता है।' साधुओं ने उनका पूर्व भव जानने की इच्छा प्रकट की। नेमिनाथ भगवान ने उनके पूर्वभव का वृत्तांत सुनाते हुए कहा : ' 'मगध देशमें पराशर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। गाँव के लगों से वह राज्य के खेतों की बुवाई करवाता था। भोजन के समय खाद्यसामग्री आ जाने पर भी वह सबको भोजन करने की छूट न देता था और भूखे लोग व भूखे बैलों से हल जोतकर असह्य मजदूरी करवाता था। उस कार्य के कारण अंतराय कर्म उसने बांधा है। अंतराय कर्मों का उदय होने के कारण वह भुगत रहा है।' इस प्रकार के वचन सब साधुओं के साथ ढंढण मुनि ने भी भगवान से सुने । यह सुनकर उसे अत्यंत संवेग उत्पन्न हुआ और तुरंत प्रभु से अभिग्रह लिया कि आज से मैं पर लब्धि नहीं लूंगा। मेरी लब्धि से जो भोजन मुझे मिलेगा, उसका ही उपयोग करूंगा। इस प्रकार से कुछ काल तक आहार निर्गमन किया। एक बार सभा में बैठे श्रीकृष्ण वासुदेव ने भगवान नेमिनाथ को पूछा : ‘इन सब साधुओं में दुष्कर कार्य करनेवाला कौन है?' प्रभु ने कहा : सब मुनि दुष्कर कार्य तो करते ही हैं लेकिन ढंढण मुनि सर्वाधिक हैं, क्यों कि वे लम्बे अर्से से सख्त अभिग्रह पाल रहे हैं।' श्रीकृष्ण वासुदेव प्रभु की वंदना करके महल लौट रहे थे। मार्ग में ढंढण मुनि को गोचरी के लिए जाते देखा। हाथी के ऊपर से उतरकर उन्होंने भक्तिपूर्वक ढंढण मुनि को नमस्कार किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण वासुदेव को वंदन करते देखकर एक गृहस्थ को मुनि के लिए मान पैदा हुआ, अहो! स्वयं श्रीकृष्ण वासुदेव जिनको जिन शासन के चमकते हीरे • ३६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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