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________________ सेना गाँव के बाहर रखो। जब चोर गाँव में घुसे तब चारोंओर सेना को घूमती रखों। इस प्रकार की योजना से रोहिणेय मछली की तरह जाल में फँस कर एक दिन पकड़ा गया। लेकिन महाउस्ताद चोर ने किसी भी प्रकार से खुद चोर है ऐसा स्वीकार न किया। और कहा 'मैं शालिग्राम में रहनेवाला दुर्गचंद नामक पटेल हूँ।' उसके पास चोरी का कोई माल उस समय न था। सबूत के बिना गुनाह कैसे माना जाय? और सजा भी कैसे दी जाय? शालिग्राम में पूछताछ करने पर दुर्गचंड नामक पटेल तो था लेकिन लम्बे समय से वह कहीं पर चला गया है ऐसा पता चला। अभयकुमार ने चोर से कबूलवाने के लिए एक युक्ति आजमायी। उसने देवता के विमान की तरह महल में स्वर्ग जैसा नज़ारा खड़ा किया। चोर को मद्यपान करा कर बेहोश किया, कीमती कपड़े पहिनाये। रत्नजड़ित पलंग पर सुलाया और गंधर्व जैस कपड़े पहनाकर दास-दासियों को सबकुछ सिखा कर सेवा में रखा। चोर का नशा उतरा। वह जागा तब इन्द्रपुरी जैसा नज़ारा देखकर आश्चर्यचकित हो गया। अभयकुमार की सूचना अनुसार दास-दासी, 'आनंद हो - आपकी जय हो' - जयघोष करने लगे और कहा, 'हे भद्र! आप इस विमान के देवता बन गये हों। आप हमारे स्वामी हो। अप्सराओं के साथ इन्द्र की तरह क्रीडा करो।' इस तरह चतुराईपूर्वक बड़ी चापलूसी की। चोर ने सोचा, वाकई मैं देवता बन गया हूँ? . गंधर्व जैसे अन्य सेवक संगीत सुनवा रहे थे। स्वर्ण छड़ी लेकर एक पुरुष अन्दर आया और कहने लगा, 'ठहरो! देवलोक के भोग भुगतने से पहले नये देवता अपने सुकृत्य और दुष्कृत्य बताये - ऐसा एक नियम है। तो आपके पूर्व भव के सुकृत्य वगैरह बताने की कृपा करे। 'रोहिणेय ने सोचा, वाकई यह देवलोक है? ये सब देव-देवियाँ हैं या कबूलवाने के लिए अभयकुमार को कोई प्रपंच है? सोचते सोचते उसे प्रभु महावीर की वाणी याद आई। इन लोगों के पाँव जमीन पर हैं। फूलों की मालाएँ मुरझाई हुई हैं और पसीना भी खूब छूटता है, आँखे भी पलकें झपकाती हैं, निमेष नहीं है इसलिये यह सब माया है। मन से ऐसा तय किया कि ये देवता नहीं हो सकते इसलिये झूठा उत्तर दिया, 'मैंने पूर्व भव में जैन चैत्यों का निर्माण करवाया है, प्रभु पूजा अष्टप्रकार से की है।' दण्डधारी ने पूछा, 'अब आपके दुष्कृत्यों का वर्णन कीजिये।' चोर जिन शासन के चमकते हीरे • २६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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