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-नंदीषेण मुनि
राजगृही नगरी के श्रेणिक महाराजा का पुत्र नंदीषेण, एक दिन महावीर की देशना सुनकर वैराग्य की भावना पैदा होने से दीक्षा देने के लिए प्रभु से प्रार्थना की। भगवान महावीर ने उसे थमने को कहा, अभी तूझे संसार के भोग भुगतने बाकी हैं। लेकिन तीव्र वैराग्य का रंग लगने से उसने संसार छोड़कर दीक्षा ली। भगवान ने भावि भाव जानकर उनको दीक्षा दी। दीक्षा समय शासनदेवताओं ने भी दिव्य ध्वनि द्वारा सूचित किया, 'संसारी कर्म भुगतने बाकी हैं, कर्म किसीको भी छोड़ता नहीं है।' लेकिन नंदीषेण ने दीक्षा ली और तप एवं संयमी जीवन बीताते हुए कईं विद्याए प्राप्त कर ली। भगवान ने कहे भविष्य को झूठा करने के बहुत प्रयत्न किये, छठ्ठी के पारणे - आयंबिल एव पुनः छठ्ठी-इस प्रकार तप प्रारंभ किये। विकार छोड़ने जंगल में रहने लगे। परंतु लंगूर जैसा मन विकारी विचार न छोड़ सका। मन मनाने के लिए खूब मथे और ऐसे विकारी मन से हारकर आत्महत्या करने के विचार से एक टेकरी पर चढ़े और कूदकर आत्महत्या की तैयारी करने लगे; लेकिन कूदते पहले आत्मा को धक्का लगा कि ऐसा आत्महत्या का पाप कर्म कैसे हो? प्रभु महावीर का नाम लज्जित होगा, आत्महत्या नहीं हो सकती। मन मरोड़कर दीक्षा के दिन व्यतीत करते रहे।
वे एक दिन गोचरी के लिए निकले और एक अनजान आवास पर पहुंचे।
धर्मलाभ बोलकर गोचरी की जिज्ञासा व्यक्त की। कर्म संजोग से वह आवास कोई गृहस्थी का न था। वह तो एक वेश्या का आवास था। वेश्या ने धर्मलाभ का जवाब दिया, 'यहाँ धर्मलाभ का कुछ काम नहीं है। यहाँ तो अर्थलाभ चाहिये।'
नंदीषेण को यह मर्मवचन चुभे । ' ले तूझे अर्थलाभ चाहिये' - यों कहकर एक तिनका हाथ से हिलाकर घर में साड़े बारह कोड़ी की बरसात की।
ऐसी विद्यावाला नवयुवक आँगन में आया देखकर वेश्या ने अपने हावभाव, चंचलता दिखाकर मुनि को लुभाया। मुनि साधुता छोड़कर गृहस्थ बन गये। मन को मनाया, भावि भाव संसारी भोग भुगतने बाकी हैं। वह वीरवाणी
जिन शासन के चमकते हीरे • १७