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________________ किया, अर्थात् देवशर्मा को प्रतिबोधित किया। यहाँ कार्तिक मास की अमावास्या की (हमारे देश के रिवाज अनुसार अश्वीन कृष्ण अमावास्या) पीछली रात्रि को चन्द्र स्वाति नक्षत्र में आते ही जिन्होने छठ्ठ का तप किया है वे वीरप्रभु अंतिम प्रधान नामक अध्ययन कहने लगे। उस समय आसन कम्प से प्रभु का मोक्ष समय जानकर सुर और असुर के इन्द्र परिवार सहित वहाँ आये । शक्रेन्द्रने प्रभु को हाथ जोड़कर संभ्रम के साथ इस प्रकार कहा, 'नाथ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए है, इस समय स्वाति नक्षत्र में मोक्ष होगा परंतु आपकी जन्मराशि पर भस्मग्रह संक्रांत होनेवाला है, जो आपके संतानों (साधु-साध्वी) को दो हजार वर्ष तक बाधा उत्पन्न करेगा, इसलिये वह भस्मक ग्रह आपके जन्म नक्षत्र संक्रमित हो तब तक आप राह देखे, इस कारण प्रसन्न होकर पल भर के लिए आयुष्य बढ़ा लो जिससे दुष्टग्रह का उपशम हो जावे।' प्रभु बोले, 'हे शक्रेन्द्र ! आयुष्य बढाने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है।' ऐसा कहकर समुच्छित क्रिय चौथे शुक्ल ध्यान को धारण किया और यथा समय ऋजु गति से ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष प्राप्त किया । श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध प्राप्त कराकर वापिस लौटे, मार्ग में देवताओं की वार्ता से प्रभु के निर्वाण के समाचार सुने और एकदम भडक उठे और बड़ा दुःख हुआ। प्रभु के गुण याद करके 'वीर ! हो वीर !' ऐसे बिलबिलाहट के साथ बोलने लगे, और अब मैं किसे प्रश्न पूछूंगा ? मुझे कौन उत्तर देगा? अहो प्रभु ! आपने यह क्या किया? आपके निवार्ण समय पर मुझे क्यों दूर किया? क्या आपको ऐसा लगा कि यह मुझसे केवलज्ञान की मांग करेगा? बालक बेसमझ से माँ के पीछे पडे वैसे ही मैं क्या आपका पीछा करता? परंतु हाँ प्रभु ! अब मैं समझा । अब तक मैंने भ्रांत होकर निरोगी और निर्मोही ऐसे प्रभु में राग और ममता रखी । राग और द्वेष तो संसार भ्रमण का हेतु है। उनका त्याग करवाने के लिए ही परमेष्ठी ने मेरा त्याग किया होगा। ममतारहित प्रभु में ममता रखने की भूल मैंने की क्योंकि मुनियों को तो ममता में ममत्व रखना युक्त नहीं हैं। इस प्रकार शुभध्यान परायण होते ही गौतम गणधर क्षपक श्रेणी में पहुँचे और तत्काल घाति कर्म का क्षय होते ही उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बारह वर्ष केवलज्ञान पर्याय के साथ बानवे वर्ष की उम्र में राजगृही नगरी में एक माह का अनशन करके सब कर्मों का नाश करते हुए अक्षय सुखवाले मोक्षपद को प्राप्त किया । जिन शासन के चमकते हीरे • ३२३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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