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________________ ९ -भरतेश्वर और बाहुबलि २ बाहुबलिजी ने एक वर्ष तक उग्र तपस्या की। शरीर पर सैंकडों शाखाओंवाली लताएँ लिपट गई थी। पक्षीयोंने घोंसले बना लिये थे। भगवान श्री ऋषभदेव ने ब्राह्मी एवं सुन्दरी को बुलाकर बाहुबलिजी के पास जाने को कहा और बताया कि मोहनीय कर्म के अंश रूप मान (अभिमान) के कारण उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा है। बाहबलि जहाँ तप कर रहे थे वहाँ आकर ब्राह्मी एवं सुन्दरी उपदेश देने लगी और कहा, 'हे वीर! भगवान ऐसे हमारे पिताजी ने कहलाया है कि हाथी पर बैठे हुए को केवलज्ञान होता नहीं है।' यह सुनकर बाहुबलिजी सोचने लगे, 'मैं कहाँ हाथी पर बैठा हुआ हूँ? लेकिन दोनों बहिनें भगवान की शिष्या हैं, वे असत्य नहीं बोल सकतीं।' ऐसा सोचते ही उन्हें समझ आयी कि उम्र में मुझसे छोटे लेकिन व्रत में बड़े भाइयों को मैं क्यो नमस्कार करूं - ऐसा जो अभिमान मुझमें है - उसी हाथी पर मैं बेठा हूँ। यह विनय मुझे प्राप्त नहीं हुआ, वे कनिष्ट है ऐसा सोचकर उनकी वंदना की चाह मुझे न हुई। इसी समय मैं वहाँ जाकर उन महात्माओं को वंदन करूंगा। ऐसा सोचकर बाहुबलिने कदम उठाया। और उनके सब दैहिक कर्म टूट गये। उसी समय महात्मा को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भरत महाराजा एक दिन स्नान करके, शरीर पर चंदन का लेप लगाकर सर्व अंगो पर दिव्य रत्न आभूषण धारण करके अंत:पुर के आदर्शगृह में गये। वहाँ दर्पण में अपना स्वरूप निहार रहे थे तब एक अंगूलि से मुद्रिका गिर गई। उस अंगलि पर नज़र पडते वह कांतिविहीन लगी। उन्होंने सोचा कि यह अंगूलि शोभारहित क्यों है? यदि अन्य आभूषण न हो तो ओर अंग भी शोभारहित लगेंगे? ऐसा सोचते सोचते एक एक आभूषण उतारने लगे। सब आभूषण ऊतर जाने के बाद शरीर पत्ते बगैर के पेड़ समान लगा। शरीर मल और मूत्रादिक से मलिन है। उसके ऊपर कपूर एवं कस्तुरी वगैरह विलेपन भी उसे दूषित करते है - ऐसा सम्यक् प्रकार से सोचते सोचते क्षपकश्रेणी में आरूढ़ होकर शुक्लध्यान प्राप्त होते ही सर्व घाति कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जिन शासन के चमकते हीरे . १५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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