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आये थे उन्हें सेठ का धन ग्रहण करने अटकाया ।
यह बात राजसेवकों ने जाकर राजा को कही, इस कारण राजा स्वयं वहाँ आये। उन्होंने आकर ब्राह्मण को राज्य का कानून समझाया और 'हमारा यह परम्परागत नियम है कि निसंतान का धन ग्रहण करना । तो इसमें तुम क्यों रूकावट डाल रहे हो?' ब्राह्मण ने कहा, 'आपको तो निःसंतान हो उसकाही धन ग्रहण करना है न? इसका पुत्र तो जीवित है।' राजा ने कहा, 'कहाँ है? कहाँ जीवित है वह बालक ?'
ब्राह्मण ने भूमि में गड़े हुए बालक को बाहर निकालकर बताया और छाती की धडकन बताकर समझाया कि बालक जीवित है। इससे राजा, उसके सेवक और नगर के लोग बड़े आश्चर्यचकित हुए। आश्चर्य में पड़े हुए राजा ने पूछा, 'आप कौन हो ? और यह बालक कौन है?' उस समय वेश धरे ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं नागराज धरणेन्द्र हूँ । इस बाल महात्मा ने अठ्ठम का तप किया है, जिसके प्रभाव से यहाँ उसे सहाय करने के लिये आया हूँ।' राजा के पूछने पर धरणेन्द्र ने बालक के पूर्वभव का वृत्तांत भी कह सुनाया । और अंत में कहा कि 'लघुकर्मी यह महापुरुष इसी भव में मुक्ति पायेगा और यह बालक भी राज्य पर बड़ा उपकार करनेवाला होगा।'
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ऐसा कहकर नागराज धरणेन्द्र ने अपने गले का हार निकालकर नागकेतु को पहनाया और अपने स्थान पर लौट गया । व्याख्यानकार आचार्य श्री लक्ष्मीसूरीजी ने इस कारण से ही ऐसा कहा है कि ' श्री नागकेतु ने उसी भव में अठ्ठम तप का प्रत्यक्ष रूप पाया ।'
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बड़ा होकर नागकेतु परम श्रावक बना। एक बार राजा विजयसेन ने कोई एक मनुष्य जो वाकई में चोर न था उसे चोर ठहराकर मार डाला। इस प्रकार अपमृत्यु पाया हुआ वह मरकर व्यंतर देव बना । वह व्यंतर बना तो उसे खयाल आया कि अमुक नगरी के राजा ने मेरे सिर पर चोरी का झूठा कलंक लगाकर मुझे मार डलवाया था, जिससे उस व्यंतर को उस राज्य पर बहुत गुस्सा आया। उस राजा को उसकी पूरी नगरी सहित साफ कर देने का निर्णय किया। इसलिये उस राजा को लात मारकर सिंहासन परसे गिरा दिया और खून वमन करता बना दिया। तत्पश्चात् नगरी का नाश कर डाले ऐसी एक शिला आकाश में रच दी। आकाश में बनी बड़ी शिला को देखकर नगरजन बड़ी घबराहट में
जिन शासन के चमकते हीरे • २८९