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________________ सुस्थित देव ने उन छ: जनों को रथ में बिठाकर अमरकंका नगरी तक पहुंचाया। वहाँ कृष्ण के सिवा पांच पाण्डवों ने राजा पद्मोत्तर के साथ युद्ध किया परंतु उसमें हारे तो श्रीकृष्ण ने रणसंग्राम में आकर जय पायी। पद्मोत्तर राजा गढ़ में घूस गया और किल्ले के द्वार ठीक तरह से बंद करवा दिये। श्रीकृष्ण ने किल्ले पर चढकर नरसिंहरूप धारण करके धरती को कम्पाया, जिससे कई नगरवासियों के घर गिर पड़े। इससे डरकर पद्मोत्तर राजा श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में झुका और क्षमा मांगकर कहा, 'मैंने प्रथम मूढता तो यह की कि मैंने द्रौपदी का हरण किया, और दूसरी मूढता, कि मैंने आपके साथ संग्राम किया। अब मुझ पर उपकार करके द्रौपदी का अंगीकार करो। मैं आपको शीश झुकाता हूँ इसलिये आप मेरे पर अब कोप करना मत।' ____ यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अपना मूल रूप धरा । पश्चात् पद्मोत्तर राजा श्रीकृष्ण को नगर में ले गया और भोजन वगैरह से उनकी भक्ति की और अंतपुर में से द्रौपदी की लाकर उनको सौंप दी। इस महासती को लेकर श्रीकृष्ण वापिस लौटे और पाण्डवों को लेकर मथुरा आये । वहाँ से कुंती माता हर्ष पाकर द्रौपदी को घर ले गई और वहाँ पुण्यदान किये। श्री नेमिनाथ भगवान मथुरा में पधारे। कुंती माता पांच पाण्डवों तथा द्रौपदी को लेकर उनको वंदन करने गयी और प्रभु का धर्मोपदेश सुना, 'इस लोक के बारे मनुष्यपना, आर्यक्षेत्र, उत्तम जाति, अच्छा कुल, अच्छा रूप, निरोगी लम्बा आयुष्य, अच्छी बुद्धि, शास्त्र का श्रवण और शुद्ध संयम, ये सब पाना महादुर्लभ है।' इत्यादि उपदेश सुनकर सातों जनों ने समकित के मूल बारह व्रत ग्रहण किये। क्रमानुसार पांच पाण्डवों ने अपने पुत्रों को राज सौंपा व कुंती तथा द्रौपदी के साथ गुरु से दीक्षा ली। अच्छी तपश्चर्या करके द्रौपदी एक बार श्री शत्रुजय तीर्थ गयी। वहाँ कड़ा तप करके आयुष्य क्षय होने पर पांचवें देवलोक में पहुँची। वहाँ आकर क्रमानुसार कुछ ही भवों में मुक्ति पायेगी। अधार्मिक पशु समान है। पानी बिलोने से मक्खन नहीं निकलता है। आलस जीवित व्यक्ति की कबर है। 'सहकार दर्शन में से जिन शासन के चमकते हीरे . २८६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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