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________________ में थी। इतने में आकस्मिक रूप से चारण श्रमण महात्मा पधारे । सर्व ने खड़े होकर उनको नमन किया और उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया। तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने ज्ञानी महात्मा को पूछा, 'मेरी पुत्री ने अर्जुन के कण्ठ में आरोपित की हुई वरमाला अन्य चारों के कण्ठ में किस प्रकार गिरी? अब क्या होगा?' उस समय मुनि ने कहा, 'द्रौपदी को पूर्व भव में किया हुआ कर्म भोगना है।' ऐसा कहकर उपर कहा है उन भवों का वर्णन किया। यह वृत्तांत सुनकर द्रुपद राजा ने मन मोड लिया कि हरेक मनुष्य कर्म के फल भोगता है। और पाँच पाण्डव द्रौपदी को लेकर हस्तिनापुर आये। पांचों पाण्डव द्रौपदी को अपनी अपनी बारी अनुसार भोगने लगे। ___एक बार द्रौपदी स्वयं अपना शरीर दर्पण में निरख रही थी। उतने में नारदऋषि वहाँ पधारे। इससे उसे नारद के आगमन की खबर नहीं लगी। इस कारण नारद रोष सहित खडे होकर घातकी खण्ड में स्थिर अमरकंका नगरी को गये। वहाँ के राजा पद्मोतर के राजदरबार में पहुँचे। राजा ने विनयपूर्वक उनको वंदन किया और पधारने का प्रयोजन पूछा। नारद ने उत्तर दिया, 'मैं हस्तिनापुर गया था, वहाँ पाण्डवों के अंत:पुर में द्रौपदी को देखा। उसके जैसी एक भी स्त्री तेरे अंतपुर में नहीं है। इस कारण पद्मोत्तर राजा ने उसे उठा लाने के लिए एक देव की आराधना की। देव द्रौपदी को हस्तिनापुर से उठाकर अमरकंका के राजा के पास ले आवा। राजा ने द्रौपदी को कहा, 'हे द्रौपदी! तूं मेरे साथ भोग भोग ले। यह राज्य तेरा ही है ऐसा समझ ले । तूं मेरी सर्व पत्नियों में मुख्य मानी जायेगी और मैं मेरा सर्व कार्य तूझे पूछकर करूंगा।' इस प्रकार द्रौपदी को कई प्रकार से प्रलोभन देने के प्रयत्न किये, परंतु इससे उसके अंत:करण में लेश भी विकार नहीं हुआ। वह तो पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लीन रहकर वहां छठ्ठ-अठ्ठम आदि तप करने लगी। द्रौपदी का हरण हुआ जानकर पांचों पाण्डव श्रीकृष्ण के पास गये। उनको यह बात बतायी। ध्यान धरकर श्रीकृष्ण ने कहा, 'द्रौपदी को कौन हर ले गया यह इस समय ज्ञात नहीं हो रहा है।' इतने में नारद वहां स्वयं आये। श्रीकृष्ण ने उन्हे पूछा, 'हे नारद ऋषि! आपने द्रौपदी को देखा?'नारद ने उत्तर दिया, 'घातकी खण्ड की अमरकंका नगरी के राजा पद्मोत्तर के अंत:पुर में एक द्रौपदी जैसी स्त्री को मैंने देखा था।' यह सुनकर श्रीकृष्ण ने सुस्थित देव की आराधना की, इस कारण जिन शासन के चमकते हीरे • २८५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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