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-द्रौपदी
चम्पापुरी नगरी में सोमदेव नामक ब्राह्मण था। उसको नागश्री नामक स्त्री थी वह सुंदर रसोई करके परिवार को भोजन कराती थी। एक बार उसने तूंबे का साग बनाया परंतु उसे चखते ही मालूम पडा कि यह तो कडुआ है। इस कारण उस साग को एक ओर रख दिया क्योंकि मसाले, तैल वगैरह प्रयुक्त होने के कारण फेंकते हुए उसका जी न चला। परिवार के लिये दूसरा साग बना डाला।
इतने में एक साधू धर्मलाभ' कहकर पधारे । नगरी में हाल ही में श्री धर्मघोष मुनि पधारे थे। उनके शिष्य श्री धर्मरुचि महाराज गोचरी के लिये निकले थे। वे यहाँ आये थे। नागश्री यति की द्वेषी थी। उसने एक ओर रखा कडवी तूंबी का साग इस महाराज को गोचरी में दे दिया। वह लेकर श्री धर्मरुचि महाराज अपने गुरु श्री धर्मघोष के पास आये। वहाँ उसके लाये हुए तूंबी के आहार देखकर गुरु ने कहा, 'यह तूंबे का फल अति कडुआ है, इससे यह साग प्राणहारक है इसलिये इसे कोई निरवद्य भूमि में गाड़ दो। (त्याग दो)। गुरु का ऐसा आदेश सुनकर शिष्य उद्यान में गया। वहाँ साग का एक बिन्दू भूमि पर गिर गया। उससे इकठ्ठी हुई सब चींटियाँ मर गई। यह देखकर शिष्य को बड़ी करुणा उत्पन्न हुई और सोचा कि 'यह साग भूमि में गाडूंगा तो जीव की हानि होगी, इससे मैं ही उसका भक्षण करूं ऐसा सोचकर स्वयंने सब कडुआ साग खा लिया और पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लीन हो गये। इस उत्तम ध्यान के कारण वह मृत्यु पाकर सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बने।
कालानुसार जिसने कडवी तूंबी का साग दिया था वह नागश्री मरकर छठे नरक में गयी, वहाँ से मत्स्य होकर सातवीं नरक में गयी और आगे भी नरक में गयी इस प्रकार सात बार नरकगमन और मत्स्य के भव हुए। अंत में नागश्री का जीव चम्पानगरी में सागरदत्त श्रेष्ठी की सुभद्रा नामक पत्नी की कोख से पुत्री के रूप में अवतरित हुआ। उसके मातापिता ने सुकुमारिका नाम रखा।
सुकुमारिका युवा होते ही मातापिता ने उसी नगर के जिनदत्त श्रेष्ठी के सागर नामक पुत्र के साथ उसकी शादी कर दी और घरजमाई के रूप में उसे अपने घर रखा।
रात्रि में सागर, सुकुमारिका के साथ शय्या में सो रहा था।उतने में सुकुमारिका
जिन शासन के चमकते हीरे • २८२