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पादलिप्ताचार्य भी वल्लभी के नज़दीक आ पहुंचे। तब वहाँ के कई पण्डितों ने मिलकर उनके पांडित्य की परीक्षा करने के लिये घी का एक थाल भरकर उनके सामने भेजा। पादलिप्ताचार्य ने विचार करके उस थाल में एक सुई चुभा कर थाल वापस भेजा। यह बात राजा को मालूम हुई तब पण्डितों को बुलाकर पूछा, 'आपने क्या गुप्त समस्या की?' तब पण्डितों ने समझाया कि 'घी की भाँति यह नगर पण्डितों से भरपूर है। इसलिये सोच समझकर शक्ति हो तो ही इस नगर में पधारना।' आचार्य ने सुई चुभोकर बताया कि तीक्ष्णता से जिस प्रकार यह सूई - इस घी में घुस जाती हैं उस प्रकार इस नगर के पण्डितों की पंक्ति में घुल-मिल जाऊँगा पर वहाँ से किसी प्रकार से पीछे नहीं हटूंगा।' ___ओर पण्डितों ने कहा, यह देखते हुए लगता है कि आचार्य सचमुच विचक्षण हैं, इसलिये उनको हमें मान देना योग्य है।
तत्पश्चात् पण्डितों सहितों राजा ने उनका बडे ठाठ से नगरप्रवेश कराया। पाँचसौं पण्डित सहित राजा हररोज उनके व्याख्यान में आने लगा। उनके पांडित्य तथा व्याख्यानकला से पंण्डित तथा राजा एवं वहाँ की प्रजा बड़ी ही विस्मित हुई। इतना ही नहीं परंतु आचार्य महाराज ने वहाँ 'निर्वाणकलिका' और 'प्रश्न प्रकाशादि' ग्रंथ नये रचकर सुनाये। जिससे कई पण्डित तथा प्रजा सहित राजा भी जैन बने। ऐसी जैन शासन की बड़ी प्रशंसा कराकर पादलिप्ताचार्य ने श्री शत्रुजय पर्वत पर जाकर यात्रा की और बत्तीस उपवास अनशनपूर्वक करके उनकी आत्मा ने स्वर्ग प्रयाण किया।
अतिका भला न बोलना, अतिका भला न चुप।। अतिका भला न बरसना, अतिका भला न धूप॥
जिन शासन के चमकते हीरे • २७३