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सो राजन् ! हम वाहन में नहीं बैठेंगे।'
राजा को यह सूनकर गुस्सा आया और आचार्यदेव को गुस्से में कडवे वचन कहे।
सिद्धराज का रथ आगे चलता है। थोड़ी दूर आचार्यदेव अन्य मुनिवरों के साथ चलते हैं। राजा गुस्से के कारण आचार्यदेव को मिलते नहीं है। एक दिन, दो दिन, इस प्रकार तीन दिन बीत गये ।
राजा को लगा, 'गुरुदेव मेरे पर नाराज हुए हैं। मेरी बिनती से वे मेरे साथ आये हैं। मुझे उनका मन दुःखी नहीं करना चाहिये, प्रसन्न रखना चाहिये ।
चौथे दिन राजा आचार्यदेव के पडाव पर आये । आचार्यदेव शिष्य के साथ भोजन कर रहे थे । उनके भोजनपात्र में रुखी-सूखी रोटियाँ देखी, व पानी की कांजी देखकर राजा सोचते हैं
'अहो ! ये जैन साधू कैसी कड़ी तपश्चर्या करते हैं! वाकई ये महात्मा पूजा के योग्य हैं। उनका मैंने अपमान किया! मुझे उनकी क्षमा माँगनी चाहिये ।' आहार- पानी से निवृत्त होने के बाद आचार्यदेव के चरणों में गिरकर राजा ने क्षमा माँगी।
आचार्य ने कहा, ‘आपका कोई अपराध नहीं है। इस कारण हमें क्षमा देनी पडे ऐसा है ही नहीं। आपको यह नहीं समझना चाहिये कि हम क्रोधित हुए हैं।' राजा की समझ में आया कि इन गुरुदेव को तो मेरी कोई जरूरत नहीं है, मुझे उनकी जरूरत है। आचार्यदेव से आशीर्वाद लेकर राजा अपने स्थान पर लौट गया और रोजाना आचार्यदेव को मिलने लगा। उनके पास बैठकर जैन धर्म का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने लगा ।
ऐसा करते करते उनका संघ पालीताणा पहुँच गया। शत्रुंजय गिरिराज के दर्शन करके सिद्धराज का हृदय नाच उठा। दूसरें दिन आचार्यदेव तथा अन्य मुनिवरों के साथ राजा शत्रुंजय पहाड पर चढ़े। ऋषभदेव के दर्शन करके सब धन्य बने, भावपूर्वक पूजा की, नये संस्कृत काव्य की रचना करके भगवान की स्तुति की। पहाड उतरकर राजा ने तलहटी पर सदाव्रत प्रारंभ किया। राजा ने यात्रा के निमित्त पर याचकों को दान में सुवर्णमुद्राएँ तथा सुन्दर वस्त्र दिये ।
शत्रुंजय की यात्रा करके संघ गिरनार आया। गिरनार पर प्रभु नेमनाथ के दर्शन किये और नेमनाथ का चरित्र राजा को सुनाया। यह चरित्र सुनकर राजा
जिन शासन के चमकते हीरे २५४