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________________ संघ ने मिलकर कह दिया कि : 'बाल, स्त्री, मंद बुद्धिवाले, मूर्ख, जो चारित्र लेने की इच्छा रखते हो,वे प्राकृत हो तो सरलता से सीख सकते हैं। उन पर दया करके तत्त्वविद्वो ने प्रथम से ही सिद्धांत प्राकृत लोकभाषा में की है। तो क्या आप उनसे अधिक बुद्धिमान हो कि प्राकृत में बने सिद्धांतो को संस्कृत में पलट रहे हो? अधिक बुद्धिमानों के लिये क्या चौदह पूर्व संस्कृत में नहीं है? यह आपने जिन आज्ञा विरुद्ध किया, जिससे उनको 'पारांचित' नामक प्रायश्चित्त दिया। आपको पारांचित आलोयण के लिये बारह वर्ष तक गच्छ से अलग किया जाता है।' संघ की आज्ञानुसार साधु का वेष छिपाकर, अवधूत बनकर, मौन धारण करके संयम सहित वे विचरने लगे। संघ के बाहर सातवें वर्ष उज्जैयनी नगरी के महाकालेश्वर मंदिर में आकर शिवलिंग के सामने पैर करके सो रहे थे। वंदन - नमन करते नहीं है। इससे पुजारी वगैरह लोगों ने उनका तिरस्कार किया और उठाने के लिये मेहनत की मगर वे उठे ही नहीं, जिससे यह भी एक कुतूहल है' - ऐसा मानकर विक्रमादित्य राजा उसे देखने आये और बोले, 'अरे अवधूत!' इस शिवलिंग को तू नमन क्यों नहीं करता?' उसने कहा, 'ज्वर से पीडित आदमी जिस प्रकार मोदक नहीं खा सकता उस प्रकार यह शिवलिंग हमारी की हुई स्तवना सह ही नहीं पायेगा।' राजा ने कहा, 'अरे जटील!' यह तू क्या बकता है? स्तुति कर, जिससे हम देख सके कि क्यों सहन नहीं हो पाती?' तत्पश्चात् सिद्धसेन ने वहाँ वीर द्रात्रिंशिका' की रचना करके प्रार्थना की, जिसका प्रथम काव्य निम्नानुसार है। स्वयंभुवं भूत सहस्र नेत्र मनेक मेकाक्षर भावलिंगम् अव्यक्त म व्याहतविश्वलोका मवादि मध्यांतम पुण्यपापं इस प्रकार बत्तीस काव्य रचकर पार्श्वनाथ की स्तुति करते ही कल्याण मंदिर का ग्यारहवाँ श्लोक रचते ही शिवलिंग फटकर उसमें से बीजली जैसा चमकता दैदीप्यमान अवंति पार्श्वनाथ स्वामी का बिम्ब प्रगट हुआ। इसे देखकर विक्रम आश्चर्यचकित हो गये और पूछने लगे, 'यह मूर्ति किसने भरवायी है?' गुरु ने कहा, 'यहाँ पहले भद्रा नामक सेठानी को अवंति सुकुमार नामक श्रीमंत पुत्र था। उसे बत्तीस रानियाँ थी। एक समय अपने महल के झरोखे में खड़ा था, उस समय आर्य सुहस्तिसूरी के मुख से नलिनी गुल्म नामक विमान का वर्णन सुनकर जातिस्मरण जिन शासन के चमकते हीरे • २३६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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