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उस पंक्ति से अलग होना योग्य नहीं है।' यह सुनकर वह मण्डप बधाने नीचे झुकी तो उसकी कुक्षि में छिपाये हुए मोदक गिर पड़े। जिससे वह खूब शरमाकर एक दम भाग गया। मामा ने भानजे को पूछा, 'यह मोदक कहाँ से आये?' वह बोला, 'आपके पुत्रविवाह उत्सव में मण्डप ने मोदक की वृष्टि की।' मामा बोला, 'हे भानजे! तू इतना ज्ञानी कैसे बना?' वह बोला सर्व बात एकान्त में बताऊंगा।'
विवाह का सर्व कार्य पूर्ण हुआ तब अपना देव स्वरूप प्रकट करके श्रेष्ठी को सर्ववृत्तांत कहा। श्रेष्ठी की स्त्री को देवताओं ने कहा, 'हे स्त्री! तेरा पति कैसा परमात्मा की भक्ति में तत्पर है? वैसी तू भी बन । तू जारपति के साथ हमेशा क्रीडा करती है, आदि सर्व वृत्तांत मैं जानता हूँ परंतु तीन भुवन के अद्वितीय शरणरूप श्री वीतराग के भक्त की तू भार्या है इससे आज तक मैने तेरी उपेक्षा की है। इसलिए अब तू समग्र दंभ छोडकर धर्मकार्य में प्रवृत्ति कर। मनुष्य पूर्व में अनंत बार भोगभोगता हैं फिर भी अज्ञान व भ्रम के कारण - सोचता है कि 'मैंने कोई भी समय भोग भोगे ही नहीं है। ऐसा होने से मूर्ख मनुष्यों की काम भोग सम्बन्धी तृष्णा कदापि शांत होती ही नहीं है। उनका वैराग्य होना भी अति दुर्लभ ही हैं। श्री आध्यात्मसार में कहा है कि 'जिस प्रकार शेरों को सौम्यपना दुर्लभ है और सों को क्षमा दुर्लभ है उसी प्रकार विषय में प्रवृत्त हए जीवों को वैराग्य दुर्लभ है। इससे हे स्त्री! आत्मा के बारे में वैराग्य धारण करके अनेक भव में उपार्जन किये पापकर्म का क्षय करने के लिये और अनादि काल की भ्रांत के नाश के लिये सर्वथा द्रव्य और भाव से दंभ का त्याग करके अनेक उत्तम और शुभ कार्यों के लिए उद्यम कर । दंभ ही सर्व पाप का मूल है तथा अनेक सद्गुणों का नाश करनेवाली है। कहा है, 'जिह्वा रस की लोलुपता छोड़ी जा सकती है, शरीर पर के अलंकारों का मोह छोडा जा सकता है, उसी प्रकार कामभोग भी छोड़ा जा सकता है। परंतु दंभ का सेवन छोड़ना मुश्किल है' और समुद्र को पार करनेवालों को नाव में एक लेशमात्र भी छिद्र होवे तो वह डूबने का कारण है, उसी प्रकार जिसका चित्त अध्यात्म ध्यान में आसक्त है उसे थोडा सा भी दंभ रखना उचित नहीं है क्योंकि वह संसार में डूबने वाला है।
उपदेश सुनकर उस स्त्री ने प्रतिबोध पाया और श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। देवता श्रेष्ठी को लाख सुवर्णमुद्राएँ देकर अंतर्धान हुआ।क्रमानुसार भोगसार श्रेष्ठि अपनी पत्नी सहित श्रावक धर्म पालकर स्वर्ग में गया और वहाँ से क्रमानुसार थोडे ही भव करके मुक्ति सुख को पायेंगे।
भोगसार श्रेष्ठि की भाँति धर्म क्रिया में विचिकित्सा का त्याग करना, ऐसे जीवों का देवता भी सेवक की भाँति सान्निध्य करते हैं।
जिन शासन के चमकते हीरे . २०३