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मृगावती
सूरप्रिय नामक यक्ष साकेत नगर में रहता था। वहाँ के लोग उस यक्ष को खूब मानते थे। हर साल उसकी यात्रा के दिन उसके विचित्र रूप को चित्रित करते थे। वह यक्ष उस हरेक चित्रकार को मार डालता था। यदि चित्र चित्रित नहीं किया जाता तो वह यक्ष पूरे वर्ष भर लोगों का पकड़ पकड़ कर नाश करता था। इस प्रकार चित्रकारों का वध हो जाने के कारण कई चित्रकारपरिवार वहाँ से भागकर दूसरे नगर में चले गये। इस दुष्ट यक्ष के डर से राजा ने अपने सैनिको को भेजकर उन चित्रकारों को वापिस बुलवाया और उन सर्व के नामों की पर्चियां लिखकर वे सब एक घड़े में डाली, और जिसका नाम आता वह यक्ष की यात्रा के दिन चित्र चित्रित करें और यक्ष उसका वध करे - ऐसा निर्णय लिया गया। इस प्रकार लम्बा काल व्यतीत हुआ।
एक बार कोशांबी नगरी से चित्रकला सीखने के लिये किसी चित्रकार का पुत्र साकेतपुर नगरी में आया और एक चित्रकार की वृद्ध स्त्री के घर ठहरा। उसे उस वृद्धा के पुत्र से मैत्री हो गई। दैवयोग से उस वर्ष उस वृद्धा के पुत्र के नामकी ही चिठ्ठी निकली, जो कि वाकई में यमराज का आमंत्रण ही मानी जाती थी। यह खबर सुनकर वृद्धा रुदन करने लगी। यह देखकर कौशांबी के युवा चित्रकार ने रुदन करने का कारण पूछा; तब वृद्धा ने अपने पुत्र पर आ पडी विपदा की बात कह सुनायी । वह बोला, माता! घबराना मत, आपका पुत्र घर ही रहेगा, मैं जाकर चित्रकारभक्षक यक्ष का चित्र बनाऊंगा।' वृद्धा ने कहा, 'वत्स! तू भी मेरा पुत्र ही है।' वह बोला, 'माता मैं भी हूँ मगर मेरा भाई स्वस्थ रहे।' तत्पश्चात वह युवक चित्रकार ने छठ्ठी का तप करके, स्नान करके चंदन का विलेपन किया, मुख पर पवित्र वस्त्र आठ परतें करके बांधा । नई तुलिका व सुंदर रंगो से यक्ष की मूर्ति चित्रत की। तत्पश्चात् वह बालचित्रकार यक्ष को शीश झुकाकर बोला, 'हे सूरप्रिय देव! अति चतुर चित्रकार भी आपका चित्र बनाने में समर्थ नहीं है, तो मैं तो गरीब बालक मात्र ! उसके सामने क्या हूँ? यद्यपि हे यक्षराज ! मैंने मेरी शक्ति से जो कुछ बनाया है, वह युक्त या अयुक्त जो भी हो उसे स्वीकार करें और कुछ भी भूलचूक हुई हो तो उसके लिए मुझे क्षमा करना; कारण आप निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ
जिन शासन के चमकते हीरे . १८७