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________________ से छेदते हुए, पांच काव्य बोले और पाँच रस्सियाँ छेद डाली। छट्ठा काव्य बोलने के बाद जब वह अंतिम रस्सी काटने का आरंभ करता है तब उसको देखने इकट्ठे हुए कई मनुष्यों की भीड़ के बीच में सूर्यदेवता ने प्रत्यक्ष दर्शन दिये, इतना ही नहीं उसका कोढ दूर करके सुवर्णकांति जैसा उसका शरीर कर दिया। ऐसी घटना घटने से दूसरे दिन राजा ने बड़े ठाठ से बाजेगाजे के साथ दरबार में बुलवाया। जब वह आया तो अपने बहनोई (मयूर) को कहा, 'काले मुंह वाले कौए जैस शूद्र पक्षी ! मुझ गरुड समान के आगे तेरी क्या शक्ति है? यदि शक्ति है तो दिखा दे? बेठा क्यों है?' उस समय मयूर ने कहा, 'है, है, है : हममें भी ऐसी शक्ति है, यद्यपि नीरोगी को औषध की कुछ जरूरत नहीं फिर भी तेरे वचन को अन्यथा करने के लिए इस सभा के समक्ष मेरी शक्ति बता देता हूँ तो तू तेरी आँखे खोलकर देख ले।' ऐसा कहकर उसने एक छुरी मंगवाई और अपने हाथ-पैर की ऊँगलियाँ अपने हाथ से काट डाली और चण्डीदेवी की स्तवना करते हुए काव्य रच कर बोलने से कविता के छटे अक्षर का उच्चार करते ही देवी प्रसन्न होकर आयी और खड़ी रही। वह बोली, 'महासात्त्विक ! माँग, मैं तूझ पर प्रसन्न हूँ, तू जो माँगेगा वह दूंगी।' उसने शीघ्र ही देवी से वर माँगकर अपनी कटी हुई ऊँगलिया ठीक करवा दी। इतना ही नहीं, प्रसन्न हुई देवी ने उसका शरीर भी व्रजमय दृढ कर दिया। यह चमत्कार देखकर पूरी सभा आश्चर्य से स्तब्ध हो गई। इससे राजा ने भी उसका बड़ा सम्मान किया और उसके वर्षासन में भी बड़ी बढोत्तरी कर दी। . ___ इस अवसर पर जैन धर्म पर द्वेष रखनेवाले किसी विप्र में सभा के बीच बात चलाई कि 'जैन धर्म में ऐसी चमत्कारिक कविता रचनेवाले पण्डित नहीं देखे गये हैं। यदि कोई ऐसी चमत्कारिक कविता रचने में अपनी चालाकी दिखाये तो ठीक है परंतु यदि ऐसा कोई भी प्रभावक उनमें न हो तब बेकार में ही इस आर्य देशमें उन्हें क्यों आने-जाने दें ? सभा में बैठे हुए बड़े भाग के जैनद्वेषी होने से सबका ध्यान इस बात में आकर्षित हुआ। इस कारण राजा ने तुरंत अपने सेवकों को भेजकर दूर देश में विचरते श्री मानतुंगाचार्य नामक जैनाचार्य को रूबरू बुलवाया और पूछा कि 'आपके यहाँ कोई भी चमत्कारिक कविताएँ रचने में प्रवीण हो तो हमें मिलवाइये। यदि कोई भी ऐसा विद्वान जिन शासन के चमकते हीरे • १७५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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