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तत्पश्चात् आचार्य ने सागरमुनि को प्रतिबोध देने के लिए एक प्याला भर कर नदी की रेत और एक छलनी मंगवाई। छलनी में उस रेत को छाना गया तो बारीक रेत निकल गई और छलनी में बड़े कंकर बांकी रहे। उन्हे दूर फेंककर रेत को दूसरे स्थान पर डाली। बाद में दुबारा रेत को वहाँ से उठाकर अन्य स्थान पर डाली। वहाँ से भी रेत उठाकर अन्य स्थान पर डाली। इस प्रकार भिन्न भिन्न स्थान पर ड़ाली और उठायी। इस प्रकार करते हुए बहुत कम रेत शेष बची। इस प्रकार रेत का दृष्टान्त बताकर गुरु ने सागरमुनि को कहा, 'हे वत्स ! जिस प्रकार नदी में स्वाभाविक तौर पर बहुत रेत होती हैं उसी प्रकार तीर्थंकरो में संपूर्ण ज्ञान रहा है। जिस प्रकार प्याले से नदी में से थोड़ी रेत ली उस प्रकार गणधरों ने जिनेन्द्रों से थोड़ा श्रुत ग्रहण किया, और जिस प्रकार रेत को भिन्न भिन्न स्थानों पर डालकर वापिस लेने से नई नई भूमि के योग से कम होते होते थोड़ी शेष बची। इस प्रकार श्रुत भी गणधर द्वारा चलती परम्परा के क्रमानुसार कालादिक के दोष के कारण अल्पतम बुद्धिवाले शिष्यों की विस्मृति वगैरह के कारण से क्षीण होकर अब बहुत कम बचा है। इसमें छलनी का उपनय इस प्रकार समझना है कि सूक्ष्मज्ञान का सर्वनाश हो गया है, अब स्थूल ज्ञान ही रहा है। इसलिये हे वत्स ! तूने श्रुत का अभ्यास अच्छी तरह से किया है परंतु श्रुत ज्ञान के प्रथम आचार को तू बराबर समझ नहीं पाया है; क्योंकि तू बेसमय स्वाध्याय करता है । इसके बारे में निशीध चूर्णी में कहा है कि '1. सूर्योदय से पूर्व, 2. मध्याह्न समय, 3. सूर्यास्त समय और 4. अर्धरात्रि को चार संध्या समय पर स्वाध्याय न करना।' यह उपदेश गुरु के मुख से सुनकर सागर आचार्य ने मिथ्या दुष्कृत देकर वंदन किया गुरु चरणों में शीश झुकाया और विशेष रूप से गुरु की सेवा करने लगे । 'जो कोई सागर आचार्य की भाँति अहंकार से योग्य काल को अतिक्रमित करके श्रुतादिक पठन करते हैं वे विद्वान साधू की सभा में कई प्रकार से लज्जित होकर निंदा को प्राप्त करते हैं । '
जिन शासन के चमकते हीरे १७३