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________________ है।' तत्पश्चात् उसने अपने शिष्यों को वाचना देते हुए बुद्धि के मद से सूरी को कहा, 'हे वृद्ध! मैं श्रृत स्कंध पढ़ा रहा हूँ। वह आप सूने।' यह सुनकर गुरु तो मौन ही रहे । तत्पश्चात् सागरमुनि अपनी बुद्धि की कुशलता बताने के लिए कई सूक्ष्म बुद्धिवालों से ग्रहण हो सके ऐसी परिभाषा का विस्तार करने लगे। परिभाषा रस में तल्लीन होने से बेमौके पर अनध्याय का समय जाना नहीं। ___ उज्जैन नगरी में प्रातःकाल शिष्य उठे। वहाँ गुरु को देख नहीं, जिससे वे अत्यंत आकुल-व्याकुल हो गये और संभ्रात चित्त बस्ती के स्वामी शय्यातर श्रावक के पास जाकर पूछा, 'हमें छोड़कर हमारे गुरु गये कहाँ ? तब उस श्रावक ने कोप करके कीं, 'श्रीमान आचार्य ने आपको खूब उपदेश दिया, आपको बहुत समझाया, प्रेरणा की फिर भी आप सदाचार में प्रवर्त न हुए। तुम्हारे जैसे प्रमादी शिष्यों से गुरु के कार्य की क्या सिद्धि होनेवाली थी? इसलिये वे तुम्हें छोड़कर चले गये।' यह सुनकर वे लजित हो गये और कहा, 'आप हम पर प्रसन्न होवे और हमारे गुरु ने पवित्र की हुई दिशा हमें दिखाये। इस प्रकार शिष्यों ने बड़े आग्रहपूर्वक पूछा इसलिये उस श्रावक ने गुरु के विहार की दिशा बतायी। वे सब वहाँ से चल पड़े। अनुक्रम से गुरु को ढूंढते ढूंढते वे सागर मुनि के पास आये और उनको पूछा, 'पूज्य ऐसे कालिकाचार्य कहाँ है?' सागर मुनि ने उत्तर दिया, 'वे तो मेरे पितामह गुरु लगते हैं। वे तो यहाँ नहीं आये हैं, परंतु जिन्हें मैं पहचानता नहीं हूँ - ऐसे कोई वृद्ध मुनि उज्जैन नगरी से यहाँ पधारे हैं। आप उन्हें देखो, वे इसी स्थान में है।' तत्पश्चात् शिष्यों ने सागर मुनि द्वारा बताये स्थल पर देखा। वहाँ गुरु को देखकर हीन मुख से अपने अपने अपराध की बार बार क्षमा मांगी। यह देखकर सागरमुनि ने लज्जा से नम्र मुख से सोचा, 'अहो ! इन गुरु के पास पांडित्य दिखाया! यह मैंने योग्य नहीं किया। मैंने सूर्य की कांति के पास खद्योत जैसा व आम के वृक्ष पर तोरण बांधने जैसा किया।' ऐसा सोचकर उन्होंने उठकर विनयपूर्वक क्षमापना करके गुरु के चरणकमल में शिश रखकर कहा, 'हे गुरुदेव! विश्व को पूज्य ऐसे आपकी मैंने अज्ञानता से आशातना की है, उसका मुझे मिथ्या दुष्कृत हो।' जिन शासन के चमकते हीरे • १७२
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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