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________________ रानी को सब उत्तर जचे नहीं सो अंत में उसने जैन मुनि के पास जाकर राजा को नरक का स्वरूप पूछा । उन्होंने कहा, नरक सात हैं। उसमें पहले नर्क में एक सागरोपम का, दूसरे में तीन सागरोपम का यूं सातवें नरक में तैंतीस सागरोपम् का आयुष्य है । कई नरकों में क्षेत्र वेदना है व कई में परधामीनी वेदनाएँ है। रानी ने रात्रि को स्वप्न में जो देखा था ऐसा ही नरक का स्वरूप जैनाचार्य के मुख से सुनकर वह बोली कि, 'आपको भी ऐसा स्वप्न आया था क्या ?' जैनाचार्य ने कहा, 'हे भद्रे ! हमें स्वप्न आया नहीं है पर हम जैन आगमों से सब कुछ जान सकते है।' रानी ने पूछा, 'महाराज! क्या क्या कार्य करने से प्राणी को नरक पड़ता है ?'गुरु ने उत्तर दिया, 'एक तो महाआरंभ करने से, दूसरा महापरिग्रह पर मूर्छा रखने से, तीसरा मांस या मांस जैसा भोजन करने से और चौथा पंचेन्द्रि जीव का वध करने से प्राणी नरक में उत्पन्न होता है।' दूसरे दिन रात्री में देवता ने रानी को देवलोक के स्वप्न दीखायें। यह सुनकर सर्व दर्शनों के मुनियों को राजा के पूछने पर उत्तर ठीक न मिलने से जैनाचार्य को पूछा तो रानी ने जैसा स्वप्न देखा था वैसा ही वर्णन सुनकर, 'बडी खुश होकर पूछने लगी कि स्वर्ग का सुख कैसे पाया जाय ?' गुरु बोले, 'श्रावक अथवा साधू का धर्म पालने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' रानी यह सुनकर उन पर बड़ी प्रसन्न हुई। अपने पति को कहने लगी, 'स्वामिन् ! आप आज्ञा दे तो मैं दीक्षा लूं।' रानी पर उसको इतना सारा प्रेम था कि वह उसका वियोग पल भर भी नहीं सह सकता था। लेकिन रानी के बहुत आग्रह पर राजा ने कहा, 'यदि तू सदैव मेरे घर पर भोजन लेने आवे तो मैं तुझे दीक्षा लेने की अनुमति दूं।' यह बात मान्य करने पर राजा ने अरणिका पुत्राचार्य से बड़े महोत्सवपूर्वक उसको दीक्षा ग्रहण करवाई। दीक्षा लेने के बाद वह हर रोज एक बार राजा को दर्शन देने जाती थी। इस प्रकार कुछ समय बीतने के बाद वहाँ ज्ञान के उपयोग से अकाल पड़ने का ज्ञात होते ही आचार्य द्वारा अपने शिष्यों को अन्य देश में विहार करने का कहने पर उन्होंने वहां से विहार किया।आचार्य महाराज अकेले ही वहाँ रहे।पुष्पचूला आचार्य महाराज को आहार, पानी वगैरह ला देती थी। सुश्रुषा व वैयावच्च (सेवा) करने में बेग्लानपूर्वक तत्पर रहती थी। इस प्रकार वैयावच्च करते रहने में कुछ काल बीतने पर क्षपक श्रेणी में पहुंचते ही उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ फिर भी गुरु की वैयावच्च करने में वह हमेशां तत्पर रहती थी और उनको जो चीज पर रुचि हो वही ले आती थी। एक बार गुरु ने उसको पूछा, 'भद्रे ! बड़े लम्बे समय से तू मेरे मनचाहे आहार-पानी - जिन शासन के चमकते हीरे • १५३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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