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________________ प्रथम प्रहर में वह ब्राह्मण आया। स्नान-पान वगैरह में उसने प्रथम प्रहर व्यतीत कर दिया। तय किये हुए संकेत अनुसार सेनापति का आगमन हुआ। यह जानकर ब्राह्मण भय से कांपने लगा। इस कारण उसे बडे संदूक के एक खाने में डाला। इसी प्रकार सेनापति, मंत्री और राजा को भी संदूक के खानों में बंद कर दिया। इस प्रकार चारों को बंद करके प्रात:काल में रुदन करने लगी। आसपास रहते पडौसियों वगैरह ने आकर पूछा : भद्रे ! रुदन क्यों कर रही हो ?' वह बोली, 'मेरे स्वामी की दुःखकथा सुनकर रो रही हूँ।' ऐसा सुनकर इस सेठ के अपुत्र निधन हो जाने के कारण समाचार देने के लिये उसके रिश्तेदार राजा, मंत्री एवं सेनापति के पास गये, लेकिन वे तो अपने स्थान पर थे ही नहीं, इस कारण उन्होंने राजपुत्र के समक्ष जाकर सूचना दी, 'हे कुमार ! समुद्रदत्त श्रेष्ठी का परदेश में ही अपुत्र निधन हुआ है। उसकी समृद्धि आप ग्रहण कीजये।' कुमार उसके घर गया, घर में तो उसे कुछ न दिखा, एक बड़ा संदूक नजर आया। राजभवन में लेजाकर उसने संदूक खुलवाया तो उसमें से विप्र, सेनापति, मंत्री एवं राजाजी - चारों लज्जित होते हुए बाहर निकले। राजा ने ब्राह्मण, सेनापति और मंत्री-तीनों को देशनिकाला दिया और शीलवती का भली भाँति सत्कार किया व उसकी बड़ी प्रशंसा की। इस प्रकार गुरु से धर्म सुनकर कुमार ने स्वदारा संतोषव्रत ग्रहण किया और देवचन्द्र मुनि विहार करते करते श्रीपुर के नजदीक एक देवालय में आकार रूके। यह ज्ञात होते ही कुमारचन्द्र राजा उनके दर्शनार्थ गये और वापिस लौटे । यह खबर जानकर रानी ने ऐसा अभिग्रह किया कि कल सबेरे देवचन्द्र यति के दर्शन - वंदना के बाद ही भोजन करूंगी।' प्रभात के समय मुनि को वंदन करने निकली, उस समय नदी में बाढ़ आई थी और बारिश बरस रही थी सो रानी चिंता करती हुई किनारे पर ही खड़ी रही। राजा ने उसे बुलाकर कहा, 'हे प्रिये ! तुम नदी को ऐसा कहो कि 'हे नदी देवी! जिस दिन से मेरे देवर ने दीक्षा ली है उस दिन से मेरे पति वाकई मे ब्रह्मचर्य व्रत को धारण कर रहे हो तो मुझे मार्ग दीजिए।' ऐसा सुनकर रानी ने सोचा कि, मेरा पति यूं कहता तो है लेकिन उसके ब्रह्मचर्य की बात मैं क्या नहीं जानती ? तो भी यह ठीक रहेगा; जो भी होगा वह मालूम हो जायेगा। इसलिये अभी तो मैं पति की बात स्वीकार लूं, क्योंकि पति के वाक्य में शंका लाऊंगी तो मेरा पतिव्रत खण्डित हो जायेगा।शास्त्र में कहा है कि जो सती स्त्री पति के वाक्य जिन शासन के चमकते हीरे • १४८
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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