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________________ पहुँचा। उसने मन में सोचा, जिसके लिये प्रभु स्वयं अपने मुख से धर्मलाभ कहलवा रहे हैं तो वह वाकई दृढ़धर्मी ही होगी। उसकी धर्म के विषय में स्थिरता कैसी है इस बारे में मुझे उसकी परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार के विचार से वह पहले दिन राजगृही के पूर्व दिशा के दरवाजे पर अपने तपोबल से उत्पन्न शक्ति से साक्षात् ब्रह्म का रूप लेकर बैठा। ऐसा चमत्कार देखकर नगर के सर्व लोक दर्शन के लिये आये पर सुलसा श्राविका न आई। दूसरे दिन दूसरे दरवाजे पर महादेव का रूप धरकर बैठा। वहाँ भी नगर के सब लोग भक्त बनकर उसके दर्शन के लिये आये लेकिन सुलसा न आई। तीसरे दिन तीसरी दिशा के दरवाजे पर विष्णु का रूप धरकर बैठा। वहाँ भी नगर के सब लोग आये पर सुलसा न आई। चौथे दिन चौथे दरवाजे पर समवसरण की रचना की, पच्चीसवें तीर्थंकर का रूप लेकर बैठा । वहाँ भी दूसरे लोग आये लेकिन सुलसा न आई, इसलिये उसने कोई मनुष्य के साथ सुलसा को कहलवाया कि तूझे पच्चीसवें तीर्थंकर ने वंदन के लिये बुलवाया है तब सुलसा ने उत्तर दिया, 'भद्र ! पच्चीसवें तीर्थंकर कभी हो ही नहीं सकते, वह तो कोई कपटी है और लोगों को ठगने के लिये आया है । मैं तो सच्चे तीर्थंकर महावीर स्वामी के सिवाय दूसरे किसीको वंदन करूंगी नहीं। अंबड श्रावक को लगा कि यह सुलसा थोड़ी भी चलायमान होती नहीं है इसलिये वह वाकई वह स्थिर स्वभाववाली है, ऐसा जानकर अंबड अब श्रावक का भेष लेकर सुलसा के घर गया। सुलसा की बड़ी प्रशंसा करके बोला, 'है भद्रे ! तू वाकई पुण्यशाली है क्योंकि भगवंत श्री महावीर स्वामी ने मेरे साथ 'धर्मलाभ' कहलवाया है।' इतना सुनते ही वह तुरंत उठ खड़ी हुई और भगवंत को नमस्कार करके स्तवन करने लगी, 'मोहराजा रूपी पहलवान के बल का मर्दन कर डालने में धीर, पापरूपी कीचड़ को स्वच्छ करने के लिए निर्मल जल जैसे, कर्मरूपी धूल को हरने में एक पवन जैसे, हे महावीर प्रभु !आपसदैव जयवंत रहें।'अंबड श्रावक सुलसा को ऐसी दृढ़ धार्मिणी देखकर कई कई अनुमोदना करके स्वस्थानक लौटे। सुलसाने ऐसे उत्तम गुणों से शोभित अच्छे धर्मकृत्य करके स्वर्ग की संपदा प्राप्त की। वहाँ से इस भरतखण्ड में अगली चौबीसी में निर्मम नामक पन्द्रहवें तीर्थंकर बनकर मोक्षपद प्राप्त होगा। जिन शासन के चमकते हीरे • १४६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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