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________________ श्री वज्रस्वामी सुनंदा दोजीवा हुई है - ऐसा ज्ञात होने ही पूर्वानुसार हुई शर्त के अनुसार उसका प्रति प्रभु वीर के पथ पर दीक्षा लेने चल पड़ा। सुनंदा की कोख से व्रजस्वामीने जन्म लिया। जन्म के साथ ही वृद्धाओं के मुख से वज्रस्वामी ने सुना, 'इस बालक के पिता ने दीक्षा न ली होती तो इस बालक का जन्ममहोत्सव धामधूम से सम्पन्न होता।' इन शब्दों को सुनकर ही तुरंत जन्मे बालक को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और दीक्षा लेकर कल्याण करने की भावना जाग्रत हुई। उन्हें लगा कि माता मुझ जैसे बालक को दीक्षा नहीं लेने देगी। माता को उकताने के लिए उन्होने रोना शुरू कर दिया। एक-दो दिन नहीं, एक दो महिने नहीं लेकिन लगातार छ: माह तक रोते रहे। कित कितने ही उच्च संस्कार इस बालक की आत्मा में भरे होंगे इसलिए ही वे दीक्षा लेने की भावना से रोये होंगे। सतत रुदन से माँ उकता गई। उसने साधू बने अपने पति जिस उपाश्रय में जाकर ठहरे थे उस उपाश्रय जाकर, 'लो यह तुम्हार बेटा ! मैं तो थक गई। चुप ही नहीं रहता है, संभालो तुम।' ऐसा कहकर छः माह के छोटे बालक वज्रकुमार को अर्पण कर दिया। श्राविका बहिने उसकी देखभाल करती हैं । साध्वीजियों के पास वे पलने में झूल रहे हैं। साध्वीजी जो विद्याभ्यास पढ़ती थी वह सुनते सुनते वे ग्यारह अंग सीख गये। सुनंदा अब सोचती है, 'ऐसे चतुर बालक को मैंने अर्पण कर दिया. यह ठीक न किया।' ऐसा सोचकर माता बालक को वापिस लेने जाती है। गुरु महाराज और संघ ने उसे लौटाने की ना कही सो माता ने राजा के पास जाकर फरियाद की। राजा ने न्याय तोला : 'जिसके पास जाय उसीका यह बालक।' माता ने खिलौने, मीठाइयाँ वगैरह अनेक वस्तुएँ बालक को लुभाने के लिए रखीं लेकिन साधू महाराज ने ओघा व मुहपत्ति रखें। राजा बीच में खड़े जिन शासन के चमकते हीरे . १३८
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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