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________________ बहुमानपूर्वक जैनाचार्य श्री जिनभद्रसूरि महाराज श्री के पास वे बैठे। अब तक जैन श्रमणों से दूर रहनेवाले हरिभद्र पंडित को जैन श्रमणों के वातावरण में रही पवित्रता, विद्वता तथा उदारता के पहली बार वहाँ दर्शन हुए। उनका निर्मल हृदय वहाँ झुक गया। सहज जिज्ञासा से पूछा, 'भगवन् ! माताजी के मुख से जो गाथा सुनी है, उसका अर्थ कृपया समझाइये।' जवाब में आचार्य महाराज ने जैनशास्त्र अनुसार काल का अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी इत्यादि स्वरुप विस्तारपूर्वक हरिभद्र को समझाया, 'एक अवसर्पिणी में क्रमानुसार दो चक्रवर्ती, पाँच वासुदेव, पाँच चक्रवर्ती, एक वासुदेव, एक चक्रवर्ती, एक वासुदेव एक चक्रवर्ती, एक वासुदेव, दो चक्रवर्ती, एक वासुदेव, एक चक्रवर्ती - इस प्रकार उत्सर्पिणी काल में भी बारह चक्रवर्ती तथा नौ वासुदेव होते हैं।' . जैन सिद्धांतों में रहे काल आदि के ऐसे सुसंवादी स्वरूप सुननेसमझने के पश्चात् हरिभद्र को अपने ज्ञान का गर्व उतर गया। उनकी सरलता जीत गई। उनको जैन दर्शनशास्त्रों का अध्ययन करने की चटपटी लगी। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन शुरू किया। __आचार्य महाराज के पास जाकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। श्री जिनमंदिर में बिराजमान श्री वीतराग परमात्मा की भव्य मूर्ति देखकर उन्हें नई दृष्टि प्राप्त हुई, मिथ्यात्व का आंचल दूर हुआ। सहसा हृदय के बहुमान भाव से वे बोल उठे - 'वपुरेव तवाचष्टे वीतरागताम् ।' ___'हे भगवन् ! आपकी आकृति ही कह रही है कि आप राग आदि दोषों से दूर हैं - ऐसी वीतराग दशा के साक्षात् स्वरूप आप हैं।' दीक्षाकाल में उन्होंने जैन आगमों का अभ्यास किया। ज्यों ज्यों अभ्यास बढ़ता गया त्यों त्यों साधू श्री हरिभद्र के अंतर में दिव्य दृष्टि का तेज प्रकट होने लगा। संसार मात्र तारक के रूप में जैन आगमों की उपकारकता उन्हें समझ में आ गई। श्री जिनेश्वर देव की स्तवना करते हए उनकी आत्मा अंदर से पुकार उठी, 'हे त्रिलोकनाथ ! दुःषम काल के मिथ्यात्व आदि दोषों से दुषित हम जैसी अनाथ आत्माओं को यदि आप के आगम प्राप्त हुए न होते जिन शासन के चमकते हीरे . १३१
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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