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________________ - श्री हरिभद्रसूरि चित्रकूट महाराजा के पुरोहित का गौरवपूर्ण पद, दर्शन शास्त्री की गहरी विद्वता होने पर भी बालक जैसी सरलता से हरिभद्र में समाया हुआ व्यक्तित्व अच्छे अच्छे पंडितों को व्याकुल कर देता था। . ___छोटे-नये विद्यार्थी जैसा जिज्ञासा का भाव उनमें भरा पड़ा था। नया जानने, सुनने एवं समझने के लिए हरिभद्र हमेशा उत्सुक रहते थे। __कुल एवं वंशपरंपरागत मिथ्या शास्त्रों की बिरासत हरिभद्र पुरोहित को स्वाभाविकता से मिली थी। इस कारण जैन शास्त्रों, जैन दर्शन या उसके पवित्र धर्मस्थानों के प्रति उनको सहज अरुचिभाव था। हो सके तो इन सबसे दूर रहने के वे अभ्यस्त हो चुके थे। एक दोपहर को खास कारण से राजदरबार में जाने का अवसर आया। रास्ते से गुजरते हुए पंडित के पीछे, 'भागो, दौड़ो, पागल हाथी दौड़ा चला आ रहा है' की चीख पुकार होती सुनकर पंडित ने पीछे मुड़कर देखा। मानो साक्षात मृत्यु आ रही हो ऐसा राजहस्ती मदोन्मत्त बनकर जो भी चपेट में आ जाये उसे पछाडता और घनघोर गर्जनाए करता हुआ दौड़ा चला आ रहा था। पंडितजी व्याकुल हो गये, करुं क्या ? क्षणभर के लिए उलझन में पड़ गये। रास्ता संकरा था। दौड़कर आगे बढ़ने में भयंकर खतरा था, जिससे वे नज़दीक के मकान में घुस गये। पंडितजी ने अंदर जाकर देखा तो मकान सादा न था, वह सुन्दर जिन मंदिर था। श्री वीतराग अरिहंत देव की भव्य मूर्ति बिराजमान थी। लेकिन कुल परंपरागत अरुचि हृदय में भरपूर थी। इसलिये जिनेश्वर देव की स्तुति करते हुए उनके हृदय में सद्भाव न जगा और स्तुति करते हुए वे बोले : ___'वपुरेव तवाचष्टे स्पष्टं मिष्टान्न भोजनम्।' वाह! तेरा शरीर ही स्पष्ट बता रहा है कि 'तूं मिष्टान्न खाता है।' जिन शासन के चमकते हीरे . १२९
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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