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________________ ५३ श्री मम्मण शेठ - राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा राज्य करते थे । चेल्लणा नामक उनकी पटरानी थी। एक बार चौमासे की ऋतु में राजा-रानी झरोखे में बैठकर बरसते हुए बरसात में रात्रि के समय बातें कर रहे थे कि, मेरे राज्य में कोई दुःखी नहीं है । इतने में बिजली की चमक में रानी ने एक मनुष्य को नदी में बहती हुई लकड़ियों को खींच लाते हुए देखा और कहा, 'आप कहते हो कि मेरे राज्य में कोई दुःखी नहीं है, तो यह मनुष्य दुःखी नहीं होने पर भी ऐसा क्यों करता है ?" राजा ने सिपाही भेजकर उस मनुष्य को बुलाकर पूछा, 'तूझे क्या दुःख है कि ऐसी अंधेरी रात्रि में नदी में से लकड़ियाँ खींच रहा है?' उसने कहा, 'मेरे पास दो बैल हैं। उनमें से एक बैल का सींग अधूरा है। उसे पूर्ण करने के लिये उद्यम कर रहा हूँ। ' श्रेणिक ने कहा, 'तूझे अच्छा बैल दिला दूं तो ?' उसने कहा, 'एक बार मेरे बैल को देखो, बाद में दिलाने की बात करना ।' राजा ने उसका पता लिखकर कहा, 'मैं सुबह तेरे बैल देखने आऊँगा ।' ऐसा कहकर उसे बिदा किया। प्रात: होते ही राजा उसके घर गया। उसे तहखाने में लेजाकर बैल दिखाये । नगद सोने - हीरे, माणिक से मढ़े हुऐ बैल देखकर राजा आश्चर्यचकित होकर कहने लगा, 'तेरे घर में इतनी सारी संपत्ति होने पर भी तू ऐसे दरिद्रता के वेश में क्यों घूमता है? और ऐसा हलका कार्य क्यों करता है?' उसने कहा : 'यह संपत्ति कुछ ज्यादा नहीं है। ज्यादा द्रव्य कमाने मेरा पुत्र परदेश गया है।' मुझे दूसरा कोई काम न सूझने पर यह कार्य करता हूँ । बैल के सींगों के उपर रत्न जड़ने के लिये संपत्ति इकठ्ठी करनी जरूरी है। इसलिये मैं ऐसे उद्यम करता हूँ। इसमें शर्म कैसी ? मनुष्य को कोई न कोई उद्यम तो करना ही चाहिये न?' राजा ने पूछा, 'आपके उद्यम के हिसाब से आपका आहार भी अच्छा ही होगा?' उसने कहा, ‘मैं तेल और चौरा खाता हूँ अन्य अनाज मुझे पचता ही नहीं है। दूसरों को अच्छा खाते देखकर मुझे चुभन होती है कि खाने-पीने में लोग बेकार में इतना सारा खर्च क्यों करते है ? " यह सुनकर राजा ने नाम पूछा। उसने कहा, 'मेरा नाम मम्मण सेठ है।' तत्पश्चात् राजा ने महल में जाकर मम्मण सेठ की सब हकीकत चेल्लणा को कही। दूसरे दिन वीर प्रभु को वंदन करने श्रेणिक और चेल्लणा गये । मम्मण सेठ जिन शासन के चमकते हीरे • ११९
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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