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जैन साधू की भेंट होने से सैन्य के आदमी गुरुजी के चारों ओर खड़े हो गये । गुरुजी को भिक्षा के लिए बिनती की। गुरुजी ने आनाकानी करके मना कर दिया । मनमें थोडा घबराये भी। अरेरे... मैंने कैसे पाप किये? मेरी सब पोल खुल जायेगी। राजा ने जरा जोर से झोली पकड़कर खींची, गहने उछलकर बाहर गिर पड़े। गुरुजी थर थर काम्पने लगे और अपना मुँह छिपाकर रोने लगे ।
यह सैन्य राजा-रानी वगैरह चौथे शिष्य जो कि देव था, उसका नाटक था। गुरुजी का पश्चात्ताप देखकर वह प्रकट हुआ और गुरुजी को दैवी रिद्धि बताई तथा कहा, 'यह सब धर्म का प्रभाव है। आपकी कृपा का फल है। स्वर्ग, मोक्ष, पुण्य पाप सब सचमुच है ही । '
नया देव देवलोक में पैदा होता है तो वहाँ के नाटक - चेटक देखने में ही हजारों वर्ष निकल जाते हैं । इसलिये वह तुरंत वहाँ से पृथ्वी पर नहीं आ सकता है। इससे लोग समझते हैं कि देवलोक जैसा कुछ है ही नहीं । परंतु यह बात झूठी है। शास्त्र सच्चे हैं। पुण्य-पाप के फल बराबर मिलते हैं । गुरुदेव श्री अषाढ़ाचार्य सब समझ गये । पश्चाताप करके पुनः दीक्षा ली। में दृढ बने और उच्च भावना व्यक्त करते हुए उसी भव में मोक्ष पधारें ।
श्रद्धा
मंगल दीप
दीप रे दीप मंगलिक दीप;
आरती उतारके बड़ा चिरंजीव... दीप०१ सुहावने घर पूर्व दिवाली;
अंबर खेल रहा है अमरा जलाकर... दीप०२ दीपाल कहे उसे कुल प्रकाशक: भाव से भगत कहे विघन निवारक दीप३ दीपाल कहे उसे इस कलिकाल में; आरती उतारी राजा कुमारपाल ने... दीप०४ हमारे घर मंगलिक, तुम्हारे घर मंगलिक; मंगलिक चतुर्विध संघ को हो... दीप०५
जिन शासन के चमकते हीरे ११२