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________________ नंदन मुनि प्रभु महावीर का पच्चीसवाँ भव श्री नंदन मुनि । कैसा उत्कृष्ट चारित्र! अंत समय पर कैसी सुंदर आराधना करके देवलोक गये! शाश्वत - मोक्ष सुख पाने के लिए कैसा चरित्र पालना चाहिए उसका सुन्दर दृष्टान्त यह कहानी है। प्रभु महावीर चौबीसवें भव में महाशुक्र देवलोक में थे। वहाँ से वे भरतखण्ड की छत्रा नामक नगरी में जितशत्रु राजा की भद्रा नामक रानी की कोख से नंदन नामक पुत्र हुए। वयस्क होते ही उन्हें राजगद्दी पर बिठाकर जितशत्रु राजा ने संसार से निर्वेद होकर दीक्षा ली। लोगों को आनंद उत्पन्न करानेवाले नंदन राजा समृद्धि से इन्द्र जैसे होकर यथाविधि पृथ्वी पर राज्य करने लगे। क्रमानुसार जन्म से चौबीस लाख वर्ष व्यति-क्रमित विरक्त होकर नंदन राजा ने पोट्टिलाचार्य से दीक्षा ली। निरंतर मास-उपवास करके अपने श्रामण्य को उत्कृष्ट स्थिति पर पहुँचाते हुए नंदन मुनि गुरु के साथ ग्राम, नगर और पुर वगैरह में विहार करने लगे। वे दोनों प्रकार के अपध्यान (आर्त, रौद्र) से और द्विविध बंधन (राग द्वेष) से वर्जित थे। तीन प्रकार के दण्ड (मन, वचन, काया), तीन प्रकार के गाख (ऋषि, रस, शाता) और तीन जाति के शल्य (माया, निदान, मिथ्यादर्शन) से रहित थे। चार कषायों को उन्होंने क्षीण कर डाले थे। चार संज्ञा से वर्जित थे। चार प्रकार की विकथा से रहित थे। चतुर्विध धर्म परायण में लीन थे। चार प्रकार के उपसर्गों में भी उनका धर्म उद्यम अस्खलित था; पंचविध महाव्रत में सदा उद्योगी थे और पंचविध काम (पांच इन्द्रियों के विषय) के सदा द्वेषी थे। प्रतिदिन पांच प्रकार के स्वाध्याय में आसक्त थे, पाँच प्रकार की समिति को धारण करते थे और पाँच इन्द्रियों को जीतनेवाले थे। षड् जीवनीकाय के रक्षक थे। सात भय स्थान से वर्जित थे, आठ मद के स्थान से विमुक्त थे। नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति को पालते थे व दस प्रकार के यतिधर्म को धारण करते थे, सम्यक् प्रकार से एकादश अंग का अध्ययन करते थे। बारह प्रकार की रुचिवाले थे, दुःषह ऐसी परिषह की परम्परा को सहन करते थे। उन्हें किसी प्रकार की स्पृहा न थी। ऐसे उन नंदन मुनि ने एक लाख वर्ष तक मासक्षमण के पारणे से मासक्षमण का तप किया। उन महान तपस्वी मुनि ने अहँत भक्ति वगैरह बीस स्थानकों की आराधना से, मुश्किल से प्राप्त हो सके ऐसा तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। इस भाँति मूल से ही निष्कलंक ऐसी साधुता का आचरण करके आयुष्य के अंत में उन्होंने इस प्रकार आराधना की। 'काल एवं विनय वगैरह जो आठ प्रकार का ज्ञानाचार कहा है, उसमें मुझे जिन शासन के चमकते हीरे . ९५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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