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________________ कुबेरदत्त जाना कि मैंने बहिन के साथ ब्याह किया है, अब इस नगरी में मैं क्या मुँह दिखाऊँ! इसलिये माँ-बाप की आज्ञा लेकर वह परदेश गया। भाग्य योग्य से घूमते घूमते वह मथुरा नगरी मे आ पहुँचा और कुबेरसेना वेश्या के यहाँ ठहरा। कुबेरसेना उसकी सगी माँ थी पर वह जानता नहीं था। अनजाने ही सगी माँ के साथ भोग भोगे । भोगविलास में कुछ काल व्यतीत हुआ। कुबेरसेना ने एक बालक को जन्म दिया। बालक का पिता कुबेरदत्त ही था । दूसरी ओर दीक्षा लेनेवाली कुबेरदत्ता को अवधिज्ञान हुआ । उसने ज्ञान द्वारा देखा कि भाई कहाँ है? देखते ही उसे भयंकर दुःख हुआ, 'अरे रे ! मेरा भाई अपनी सगी माँ के साथ भोगविलास कर रहा है, कर्म की गति न्यारी है, मेरी आत्मा चीख रही है - समझा आ माता और भाई को । ' कुबेरदत्ता साध्वीजी कठिन विहार करते करते मथुरा पधारीं । भाई और माता को प्रतिबोध करने की संमति लेकर बालक को झुलाते हुए १८ प्रकार की सगाई लोरी गाते हुए सुनाई। कुबेरदत्त संसारी सगाई का भाई तथा कुबेरसेना संसारी सगाई की कुबेरदत्ता की माता को होश आया कि माँ-बेटे ने भोगविलास किया है। पापका भयंकर पश्चात्ताप दोनों को हुआ। दोनों ने दीक्षा ली । ज्ञान की उपासना तथा तप-जप करते रहे और तीनों ने अपनी आत्मा का उद्धार किया । मान की सज्झाय रे जीव मान न कीजिये, मान से विनय न आवे रे विनय बिन विद्या नहीं, तो कैसे समकित पावे रे..... रे जीव ०१ समकित बिन चारित्र नहीं, चारित्र बिन नहीं मुक्ति रे.... रे जीव ०२ मुक्ति के सुख है शाश्वत, उसकी कैसे पायें जुक्ति रे..... रे जीव ०३ विनय बड़ा संसार में, गुण में अधिकारी रे; मान से गुण जाय गल, प्राणी देख देख विचार रे.....रे जीव ०४ मान किया जो रावण ने तो उसे राम ने हणा रे दुर्योधन गर्व करके अंत मे सब ही हारा रे..... रे जीव ०५ सूके लकड़े समान, दुःखदायी वह खोटा रे; उदयरत्न कहे मान को देना देशनिकाला रे.....रे जीव ०६ जिन शासन के चमकते हीरे ९४
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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