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________________ एक सुंदर स्त्री साधू महाराज को भिक्षा दे रही थी, साधू रंभा जैसी स्त्री के सामने देखते भी नहीं हैं । ' धन्य है ऐसे साधू को । वह कहाँ और मैं कहाँ ? मातापिता की बात न मानी और एक नटीनी पर मोहित होकर मैंने कुल को कलंकित किया।' ऐसा सोचते सोचते चित्त वैराग्यवासित हुआ। रस्से पर नाचता इलाचीकुमार अनित्य भावना का चिंतन करने लगा और उसके कर्मसमूह का भेदन हुआ, जिससे उसने केवलज्ञान पाया और देवताओं ने आकर स्वर्णकमल रचा। उस पर बैठकर इलाचीकुमार ने राजासहित सबको धर्मदेशना दी। राजा के पूछने पर अपने पूर्वभव की बात कही । जाति के घमण्ड के कारण पूर्व भव की उसकी स्त्री मोहिनी लंखीकार की पुत्री बनी और पूर्वभव के स्नेहवश स्वयं इस नटपुत्री पर मोहित हुआ था । जड़े वृक्ष तो बोया, पर उसकी परवरिश के लिये कौन उसका पोषण पूर्ण करेगा? यह जिम्मेदारी जड़ो ने स्वीकारी। इससे ही वृक्ष की छटादार घटाटोप उसके पत्ते, पुष्प और डालियाँ, उसका सौंदर्य व सौष्ठव पादुर्भाव हो सके। लेकिन जड़ो ने तो छिपे कौने में - जमीन में गड़े रहने व कभी भी न दिखाई देने का व्रतपालन ही चाहा। इसके इस समर्पण के कारण ही वृक्ष के सब अंगो ने अपनी अपनी जरूरत अनुसार पोषण पाया। इसी के कारण गुलाब ने सुगंध पाई। इसी के कारण कमल ने सौंदर्य पाया व इसी के कारण आम ने रसकस पाये । वाह रे । प्रकृति राज्य के रसद मंत्री। आपका बेजोड़ समर्पण। जड़ों की तरह हम भी गुप्त रूप से पोषण देते रहें..। जिन शासन के चमकते हीरे ८०
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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