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________________ ३८ -श्री इलाचीकुमार इलावर्धन नामक नगर में जिनशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस गाँव में इभ्य नामक सेठ व दारिणी नामक उसकी सद्गुणी स्त्री रहते थे। वे सर्व प्रकार से सुखी थे लेकिन संतान न होने का एक दुख था। इस दम्पती ने अधिष्ठायिका इलादेवी की आराधना करके कहा, 'यदि पुत्र होगा तो उसका नाम तेरा ही रखेंगे।' कालक्रम से उन्हें पुत्र हुआ और मनौती अनुसार उसका नाम इलाचीकुमार रखा। आठ वर्ष का होते ही, इलाचीकुमार को पढ़ने के लिये अध्यापक के पास छोड़ा गया। उसने शास्त्रों का सूत्रार्थ सहित अध्ययन किया। युवा अवस्था आई लेकिन युवा स्त्रीयों से वह जरा सा भी मोहित न हुआ। घर में साधू की तरह आचरण करता रहा। पिता ने सोचा, 'यह पुत्र धर्म, अर्थ और काम तीनों में प्रवीणता नहीं पायेगा तो उसका क्या होगा?' उसे व्यसनी लोगों की टोली में रक्खा, जिससे वह जैन कुल के आचार विचार न पालकर, धीरे धीरे दुराचारी बनता गया। इतने में वसंतऋतु आयी। इलाचीपुत्र अपने कुछ साथियों के साथ फलफूल से सुशोभित ऐसे उपवन में गये, जहाँ आम्र, जामून वगैरह फल तथा सुगंधित पूलों के वृक्ष थे। वहाँ लंखीकार नामक नट की पुत्री को उसने नृत्य करते हुए देखा। उसे अपनाने की इच्छा हुई। यह इच्छा बार बार होने लगी और वह दिग्मूढ होकर पूतले की भाँति खड़ा रह गया। मित्र इलाचीकुमार के मनोविकार को समझ गये और उसे समझाकर घर ले. गये। घर जाने के बाद वह रात्रि को सोया लेकिन लेशमात्र निद्रा न आई, क्योंकि नटपुत्री को वह भूला न सका था। ऐसी स्थिति देखकर उसके पिता ने पूछा, 'हे पुत्र! तेरा मन क्यों व्यग्र है? किसी ने तेरा अपराध किया है।' इलायचीकुमार मौन रहा, जवाब दिया, 'पिताजी! मैं सन्मार्ग प्रवर्तनादि सब कुछ समझता हूँ, पर लाचार हूँ। मेरा मन नटपुत्री में ही लगा हुआ है।' पिताजी समझ गये कि 'मैंने ही भूल की थी। उसे कुसंगति में छोड़ा जिसका फल भुगतने की बारी आई। अब मैं निषेध करके उसको रोदूंगा तो वह मृत्यु पायेगा, तो मेरी क्या जिन शासन के चमकते हीरे • ७८
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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