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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३१ ब्रह्मदत्तचर्की की कथा होगा? उसको मिलने के लिए चक्रवर्ती ने आधी गाथा (श्लोक) बनायी, वह इस प्रकार थी आस्वदासौ मृगौ हंसौ मातंगावमरौ तथा । इसका भावार्थ यह था कि "सर्वप्रथम हम दोनों दास थे, बाद में दोनों मृग हुए, उसके बाद दोनों हंस हुए, तत्पश्चात् चाण्डालपुत्र बनें और फिर देव हुए।" __ जो इस गाथा को पूर्ण करेगा उसे मैं समझ लूँगा कि निश्चिय ही मेरा भाई है। दूसरा कोई भी इस गाथा को पूर्ण नहीं कर सकता।" ऐसा निश्चित कर नगर में घोषणा करवायी कि जो इस गाथा का उतरार्द्ध पूर्ण करेगा, उसका मनोवांछित मैं पूर्ण करुंगा। कई मनुष्यों ने इस गाथा को पढ़ा, परंतु कोई भी इस समस्याको पूर्ण नहीं कर सका। इस तरह बहुत दिन व्यतीत हो गये। इधर पुरिमताल नगर में सेठ के यहाँ उत्पन्न हुए चित्र के जीव ने समय पाकर संसार से विरक्त होकर एक मुनिवर से चारित्र अंगीकार किया। उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ, उसने भी सम्भूति के जीव के साथ पांच जन्म का सम्बन्ध जानकर मन में विचार किया कि 'मेरे भाई ने नियाणा किया था, इसीलिए वह भिन्न कुल में उत्पन्न हुआ है, और चक्रवर्ती बना है। अतः मैं जाकर उसे प्रतिबोध दूं। ऐसा विचारकर वह मुनि कांपिल्यपुर नगर पहुँचें। उद्यान में ठहरें। वहाँ रहट चलाने वाले व्यक्ति के मुख से यह आधी गाथा सुनकर मुनि ने उत्तरार्द्ध गाथा पूर्ण की।" ... एषा नौ षष्ठिका जातिरन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः । ___ इसका भावार्थ था-"यह हमारा छट्ठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से • अलग हुए हैं।" मुनि के मुख से गाथा की उत्तरार्द्ध पंक्ति सुनकर रहट चलाने वाले ने राजा के पास जाकर उस गाथा का उत्तरार्द्ध पूरा किया। उसे सुनकर स्नेहवश राजा मूर्छित हो गया। राजा जब होश में आया तो उससे पूछा-"सच सच बता, इस गाथा की पूर्ति क्या तूने ही की है? या और किसी ने? उसने भयभीत होकर कांपते हुए कहा-"महाराज! मैं रहट चला रहा था। पास ही उद्यान में एक मुनि पधारें हुए हैं। उन्होंने सुना तो इस गाथा का उत्तरार्द्ध पूर्ण किया है; मैंने नहीं।" राजा को मुनि का आगमन सुनकर अतीव खुशी हुई उसे पारितोषिक देकर परिवारसहित उन्हें वंदन करने के लिए गया। मुनि ने संसार की अनित्यता का उपदेश देते हुए चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त से कहा-"राजन्! यह विषयसुख बिजली की चमक के समान चंचल है। इसे तुम छोड़ दो और श्री जिनेश्वर देव के द्वारा भाषित धर्म की - 71
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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