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________________ ब्रह्मदत्तचक्र की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३१ अर्थात् - शरीररूपी घर में क्रोध प्रविष्ट होकर तीन विकार पैदा करता है – १. अपने आपको तपाता है, २. दूसरे को तपाता है और, ३. दूसरे के साथ स्नेह को खत्म कर देता है ||३७|| "इसीलिए इस क्रोध के आश्रयभूत इस शरीर का ही क्यों न त्याग कर दिया जाय ? अवगुणों के निवासस्थान इस शरीर को रखने से अब क्या लाभ?" इस तरह विचारकर दोनों मुनियों ने वन में जाकर आमरण अनशन ( संथारा ) अंगीकार किया। बहुत से मनुष्य उन्हें वंदन करने आने लगे। सनत्कुमार चक्रवर्ती को पता लगा तो वह भी परिवार सहित वंदन करने के लिए आया। और वंदना एवं उनकी प्रशंसाकर लौट गया। इसके बाद चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न पटरानी सुनंदा बहुत-सी स्त्रियों के साथ वंदना के लिए आयी । भक्तिभाव पूर्वक हाथ जोड़कर चित्र मुनि के चरणों में नमस्कार कर जब सम्भूति मुनि के चरणों में नमस्कार कर रही थी; उस समय काजल के समान श्याम कोमल बालों का चरणों में स्पर्श होने से मुनि को अत्यंत राग (आसक्ति) पैदा हो गया। सम्भूतिमुनि ने उस समय निदान ( नियाणा) कर लिया - "यदि मेरे तप का फल प्राप्त हो तो ऐसा स्त्रीरत्न मुझे दूसरे जन्म में मिले।' सम्भूति मुनि को निकाचित निदान करते देख मनोभावज्ञाता चित्रमुनि ने कहा—“बन्धुवर! यह क्या कर रहो हो ? क्यों मनुष्य जन्म और उत्तमचारित्र को हार रहे हो? दुष्ट परिणाम वाले इन विषय सुखों को तो जीव ने अनंतबार भोगे; तथापि इनसे तृप्ति नहीं हुई। अतः ऐसा निदान (दुःसंकल्प) छोड़ दो।" परंतु भू गाढ़ा थें। अतः बोले- "मैंने दृढ़ मन से नियाणा कर लिया है। अब इसमें परिवर्तन होना असंभव है। आप इस बारे में मुझसे कुछ भी न कहें।" चित्रमुनि मौन रहे। अनुक्रम से दोनों मुनि अनशन पूर्ण कर स्वर्ग गये। वहाँ दोनों एक ही विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ चिरकाल तक स्वर्ग सुखों का उपभोग कर पहले चित्र के जीव ने आयुष्य पूर्ण कर पुरिमताल नगर में एक सेठ के घर पुत्र रूप में जन्म लिया, और सम्भूति का जीव नियाणा के प्रभाव से कांपिल्यपुर नगर में ब्रह्मदत्त नाम का बारहवाँ चक्रवर्ती हुआ। [इसकी उत्पत्ति का स्वरूप बाद में कहेंगे] इस चक्री ने क्रमशः ६ खण्डों पर विजय प्राप्त किया। एक दिन ब्रह्मदत्त चक्री राजसभा में बैठा था। उस समय एक फूल का गुच्छा देखते ही उसे जातिस्मरण (पूर्वजन्म का ) ज्ञान हुआ। पूर्वजन्म का नलिनीगुल्म विमान का दृश्य उसके सामने स्पष्ट हो गया। साथ ही पाँच जन्मों का भी उसे स्मरण हो आया। इससे मन में विचार करने लगा - 'जिसके साथ पाँच जन्मों का संबंध था, वह प्रियभ्राता कहाँ मिलेगा? कहाँ गया 70
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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