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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३१ ब्रह्मदत्तचर्की की कथा ने इस उपकार का बदला बुराई से चुकाया। मैं अभी इस निर्लज्ज को जला डालता हूँ।" उस मुनि की क्रोधाग्नि प्रकट हुई। उन्होंने कठोर तपस्या से प्राप्त तेजोलेश्या छोड़ी। मुंह से धुंए के बादल निकलने लगे; जिससे सारा नगर धुंए से आच्छादित हो गया। नगरनिवासी लोग भयभीत होकर परस्पर सोचने लगे- "यह क्या हो गया? क्यों हो गया? इसके पीछे किसका हाथ है? क्या नगर का पाप आज फूट निकला है?" कुछ लोग एकत्रित होकर झटपट चक्रवर्ती सनत्कुमार के पास पहुँचे और उन्हें घबराते हुए सारी हकीकत सुनाई और झटपट उपाय करने की प्रार्थना की। चक्रवर्ती सनत्कुमार सुनते ही भयाकुल होकर मुनि के पास आया, और मुनि के चरणों में गिर कर बोला-"प्रभो! मेरे अपराध क्षमा करें! मनुष्यों का संहार रोकिये। आप मुझ पर कृपा कीजिए। आप तो कृपा के समुद्र हैं, भक्तवत्सल हैं, क्षमाशील हैं। मैं दीन हूँ, और हाथ जोड़कर अर्ज कर रहा हूँ। अतः मुझ पर कृपा करके अपने क्रोध को शांत कीजिए।" उस समय चित्रमुनि को अपने भाई सम्भूतिमुनि की बात का पता लगा तो वह वहाँ आया। उसे शांत करने के लिए बहुत से शांतिमय वचन सुनाये। शांतवचनों की अमृतधारा से सम्भूतिमुनि शांत हुए। उनका क्रोध अब शांत हो चुका था। सनत्कुमार ने नमुचि मंत्री की करतूत जानकर उसे रस्सियों से बंधवाया और मुनि के चरणों में गिराया। फिर चक्री ने पूछा- "मुनिवर! आप आज्ञा दीजिए कि इस नमूचि को क्या दण्ड दिया जाय?" दोनों मुनियों ने कहा-"हमारा किसी के साथ वैरभाव नहीं है।" सनत्कुमार ने नमुचि को देशनिकाला दे दिया। बाद में दोनों मुनियों ने आत्मालोचन किया-'अहो! क्रोधावेष में मनुष्य सब कुछ भूल जाता है। उसकी सद्बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है। सचमुच क्रोध महान् अनर्थ करने वाला है।' कहा है कि जं अज्जियं चरित्तं देसूणाए य पुव्वकोडीए । तंपि अ कसायमित्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥३६।। .' अर्थात् - एक करोड़ पूर्व वर्षों से कुछ ही कम समय तक चारित्ररत्न अर्जित किया हो, उसे कषाय को मित्र बनाकर मनुष्य एक मुहूर्त में हार जाता है। अर्थात्-एक मुहूर्त भर का कषाय एक करोड़ पूर्व तक पाले हुए चारित्र को नष्ट कर डालता है ॥३६।। और भी कहा है कोह पइट्ठो देहघरि, तिनि विकार करेह । आपो तावें पर तवे परनेह हाणि करेह ॥३७।।। 1. कोह पइट्टिओ देह धरी तिन्नी विकार करेह । आप तपे पर संतपे, धननी हाणी करेह ।। - 69
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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