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________________ ब्रह्मदत्तचर्की की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३१ - उस समय चित्र और सम्भूति मन में सोचने लगे- "हमारी कला की कद्र करने के बजाय हमें नीच कुल का समझकर राजा ने नगर-निर्वासित करवा दिया! धिक्कार है, ऐसे सम्मानहीन जीवन को! और दुष्काल के दोष से दूषित ऐसी कला से भी क्या लाभ? अतः अब तो इस अपमानित जीवन का अंत कर डालना चाहिए।" ऐसा विचारकर वे एक पर्वत पर झंपापात करने के लिए चढ़े और दोनों हाथ से ताली बजाकर नीचे गिरने की तैयारी में ही थे कि अकस्मात् निकटवर्ती एक गुफा में तपस्या करने वाले किसी साधु ने उन्हें देखा और वहीं से कहा"भाई! यों मत गिरो। यह मानव जीवन यों ही नष्ट करने के लिए नहीं है। मैं तुम्हें आश्रय दूंगा।" साधु के तीन-चार बार दोहराये हुए अमृतोपम वचन सुनकर आश्चर्यचकित होकर आँखें फाड़कर वे इधर-उधर देखने लगे कि-"इस जगत् में हम पददलितों और पतितों का कौन सहायक और नाथ है जो हमें पर्वत से गिरकर जीवन नष्ट करने के लिए मना कर रहा है?" सहसा उनकी आँखें गुफा में तपोलीन एक वात्स्यमूर्ति साधु पर पड़ी। वे तुरंत मुनि के पास दौड़कर पहुंचे। मुनि ने उनसे पूछा- "वत्स! तुम्हें ऐसा कौन-सा दुःख है कि असमय में ही अपने जीवन को यों नष्ट कर रहे हो?" उन्होंने अपनी सारी आपबीती सुनाई। साधु ने स्नेह पूर्वक कहा-"अगर धर्माचरण नहीं तो केवल कुल से क्या सिद्धि हो सकती है? और इस तरह अज्ञान-मरण से भी क्या लाभ मिलेगा? इस मृत्यु से तुम्हारा दुःख कम नहीं होगा। अतः श्री जिनेश्वर भगवान् के द्वारा भाषित धर्म की आराधना करो; जिससे इस लोक में और परलोक में तुम्हारे कार्य की सिद्धि हो, तुम्हें जीवन का वास्तविक आनंद मिले।" इस तरह तपोधनी साधु का उपदेश सुनने से उन्हें विरक्ति हो गयी। उन्होंने मुनि से चारित्र स्वीकार किया, तथा निरतिचार अतिदुष्कर तप करने लगे, उग्र विहार करने लगे। एक बार वे दोनों मुनि अपरे पासक्षपण (एक महीने के उपवास) के दौरान एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। वहाँ नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरें। एक बार सम्भूति मुनि मासक्षमण के पारणे के लिए भिक्षार्थ हस्तिनापुर नगर के ऊँच-नीच-मध्यम घरों में घूम रहे थे। नमुचि मंत्री की दृष्टि मुनि पर पड़ी और वह उसे पहचान गया-'अरे यह तो सम्भूति नाम का चांडालपुत्र साधुवेष में आया है। संभव है यह मेरे दुश्चरित्र की बात राजा से कह दे। उसने तुरंत एक नौकर को समझाकर संभूति मुनि को तिरस्कार पूर्वक गर्दन पकड़कर नगर से बाहर निकलवा दिया। उस समय सम्भूतिमुनि को उस पर बड़ा रोष उमड़ा- "हा! इस दुष्ट नमुचि ने यह क्या किया? हमने तो इसको मरने से बचाया, लेकिन इस दुष्ट 68 -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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