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________________ ब्रह्मदत्तचर्की की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३१ पाप छिपा नहीं रहता। चाण्डाल को जब इस बात का पता लग गया तो उसे नमुचि से घृणा हो गयी। सोचा-"मैंने इसके प्राण बचाये, लेकिन यह मेरे ही घर में मेरी पत्नी को कामजाल में फंसाकर उसके साथ रमण करने लगा। धिक्कार है, ऐसे कामान्ध मंत्री को कि यह किये हुए उपकार को भूल गया। इससे तो कुत्ता ही अच्छा, जो किये हुए उपकार को तो नहीं भूलता।" नीतिज्ञों का कथन है अशनमात्रकृतज्ञतया गुरोर्न पिशुनोऽपि शुनो लभते तुलाम् । अपि बहूपकृते सखिता खले न खलु खेलति खे लतिका यथा ॥३४।। . अर्थात् - सिर्फ भोजन देने भर से ही कृतज्ञतावश (दाता को) गुरु (बड़ा) रूप में मानने वाले कुत्ते की समानता भी पिशुन (खराब) मनुष्य नहीं कर सकता; क्योंकि खल के प्रति बहुत उपकार करने पर भी उसके साथ मित्रता आकाश में लता के समान टिक नहीं सकती ॥३४॥ चाण्डाल ने मन ही मन निर्णय किया- 'मैंने पहले ही भूल की, जो ऐसे दुष्ट की रक्षा की। अब तो इसे झटपट मार ही डालना चाहिए।' यह सोचकर नमुचि को अपने घर से बाहर निकाला। उस समय चित्र-सम्भूति ने सोचा-'हमारे रहते पिता हमारे विद्यागुरु को मारे, यह तो बड़ा ही अनर्थ होगा।' दोनों ने अपने विद्यागुरु को बचाने की युक्ति सोची। वे पिता के पास आये और उनसे निवेदन किया-"पिताजी! सचमुच नमूचि पापी और दुराचारी है; यह मारने योग्य है; रक्षा करने योग्य नहीं है। इसीलिए इसे आप हमें सौंप दीजिए ताकि हम इसे वध्यभूमि में ले जाकर मार डालें।" चाण्डाल ने उन्हें अनुमति दे दी। दोनों चाण्डालपुत्र रात्रि के समय अपने विद्यागुरु नमूचि को पकड़कर एकान्त में ले गये। और उनसे कहा"आप हमारे विद्यागुरु हैं। इसीलिए हम आपको छोड़ देते हैं; बशर्ते कि आप इस नगर को छोड़कर दूर चले जाएँ।' नमुचि भयभीत होकर वहाँ से चल पड़ा और कुछ ही दिनों में हस्तिनापुर जा पहुँचा। वहाँ सनत्कुमार चक्रवर्ती का सेवक बन कर रहने लगा। _ चित्र और सम्भूति संगीतकला में अत्यंत प्रवीण हो गये थे। वे हाथ में वीणा लेकर नगर के चौराहों पर प्रतिदिन गीत गाया करते। उनकी कण्ठकला से मुग्ध होकर वहाँ लोगों की भीड़ जमा होने लगी। जिन्होंने कभी घर से बाहर कदम नहीं रखा था, वे युवतियाँ भी इनके गीतों से आकृष्ट होकर सुनने के लिए लज्जा छोड़कर आने लगीं। उनके गीतों में इतना जादू था कि कई शृंगार किया 1. उस समय खानदान घर की कन्याएँ एवं बहुएँ अपने घर से बाहर निष्कारण नहीं आती थीं। 66
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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