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श्री उपदेश माला गाथा ३०-३१
ब्रह्मदत्त चर्की की कथा कह तं भन्नइ सोक्खं, सुचिरेणवि जस्स दुक्खमल्लियइ ।
जं च मरणावसाणे, भव संसाराणुबंधि च ॥३०॥
शब्दार्थ - चिरकाल के बाद भी जिसके परिणाम में दुःख निहित है, उसे सुख कैसे कहें? और मृत्यु के बाद जिसके साथ भव (जन्म-मरणरूप संसार) का अनुबंध होता है ।।३०।।
भावार्थ - लम्बे काल अर्थात् पल्योपम से सागरोपम तक देवताओं के सुख होते हैं। परंतु अंत में उन्हें दुःख का आस्वादन करना पड़ता है। जब देवताओं का आयुष्य पूर्ण हो जाता है, तब उन्हें भी वहाँ से च्यवन होकर (मृत्यु पाकर) तिर्यंच-मानव आदि चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। गर्भवास आदि दुःख सहन करने पड़ते हैं। तो देवताओं को भी सुख कहाँ है? जो सुख है वह भी अंत में दुःखरूप है। वास्तव में जिससे संसार का छेदन हो, वही असली सुख है ॥३०॥
गुरु का उपदेश मिलने पर भी गुरुकर्मा जीव को वह नहीं लगता. उवएससहस्सेहिं वि, बोहिज्जतो न बुज्झई कोई ।
जह बंभदत्तराया, उदाइनियमारओ चेव ॥३१॥
शब्दार्थ - किसी मनुष्य को हजारों प्रकार से उपदेश देने पर भी प्रतिबोध नहीं होता। जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और उदायी राजा को मारने वाले को बोध नहीं हुआ।।३१।।
भावार्थ - जिसके अशुभकर्म बहुत मात्रा में बाकी रह गये हैं, उस गुरुकर्मा (भारेकर्मी) जीव को हजारों प्रकार से उपदेश दिये जाय तो भी उसे बोध नहीं होता। जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को उसके पूर्व-जन्म के भाई ने हजारों प्रकार से उपदेश दिये थे, परंतु उसे किंचित् मात्र भी बोध नहीं लगा। और उदायी राजा को मारने वाले जीव ने बारह वर्ष तक तप किया और मुनिवेश में रहा, फिर भी बोध प्राप्त नहीं किया। आगे क्रमशः दोनों दृष्टांत लिख रहे हैं-पहले ब्रह्मदत्त भव के कारणभूत चित्र-सम्भूति मुनि (ब्रह्मदत्त के पूर्वभव) का स्वरूप बताते हैं
ब्रह्मदत्त चक्री की कथा किसी गाँव में चार ग्वाले रहते थे। वे चारों सरल स्वभावी थें। गर्मी के दिनों में एक बार वे ग्वालें गायों को चराने जंगल में गये, वहाँ दोपहर के समय एकत्रित होकर वे बातें कर रहे थे। उसी समय एक साधु रास्ता भूल जाने से भयानक जंगल में रास्ता न मिलने से भटक गया। तीव्र प्यास के कारण उसका
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