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श्री उपदेश माला गाथा २८
सनत्कुमार का दृष्टांत ने पूछा- "सो किस तरह?'' उन्होंने कहा- "हमने पहले आपका जो रूप देखा था; इस समय उससे अनंतगुना हीन आपका रूप हो गया है।'' चक्री ने कहा"यह कैसे जाना तुमने?'' उन्होंने कहा- "अवधिज्ञान से।" चक्री ने पूछा- "इसका क्या प्रमाण है?'' उन्होंने कहा- "चक्रवर्ती! अपने मुख से तांबूल (पान) की पीक जमीन पर थूक कर देखो! उस पर मक्खी बैठे और मर जाय तो सही जान लेना कि आपका शरीर विषमय हो गया है; आपके शरीर में सात महारोग उत्पन्न हो गये हैं।'' देवों का यह कथन सुनकर चक्री विचार करता है- "अहो! यह शरीर सचमुच अनित्य है। इस निःसार शरीर में कुछ भी सार नहीं है।'' कहा है
इदं शरीरं परिणामदुर्बलं, पतत्यवश्यं श्लथसन्धिजर्जरं। किमौषधैः क्लिश्यसि मूढ! दुर्मते!, निरामयं धर्मरसायनं पिब ।।२५।।
अर्थात् - 'इस शरीर का अन्तिम परिणाम दुर्बल होना है। इसकी संधियाँ ढीली हो जाने से जर्जरित होकर यह अवश्य ही लड़खड़ाता जाता है। अतः हे मूढ़! हे दुर्मति! तूं औषधि लेने का कष्ट क्यों करता है? समस्त रोगों को मिटाने वाले धर्म-रसायन का ही पान कर।।।२५।। और भी कहा है
कस्तूरी पृषतां, रदा: करटिनां, कृत्तिः पशूनां पयो, । धेनूनां, छदमण्डलानि शिखिनां, रोमाण्यवीनामपि । पुच्छस्नायुवसाविषाणनखरस्वेदादि किं किं च न, स्यात् कस्याप्युपकारि मर्त्यवपुषो नामुष्य किञ्चित्पुनः ॥२६॥
अर्थात् - हिरणों की कस्तूरी, हाथियों के दांत, पशुओं का चमड़ा, गायों का दूध, मोरों के पिच्छ, भेड़ों के बाल, पशुओं की पूंछ, स्नायु, चर्बी, सींग, नाखून, पसीना आदि कौन-कौन-सी वस्तु किस-किस प्राणी के लिए उपकारक नहीं होती? मगर मनुष्य का शरीर किसी के किसी भी काम में नहीं आता ।।२६।।
इस तरह वैराग्यपरायण होकर सनत्कुमार चक्रवर्ती ने राज्यलक्ष्मी छोड़कर संयम रूपी लक्ष्मी को अंगीकार किया। जैसे सर्प कांचली छोड़कर वापिस मुड़कर उसे देखता भी नहीं; वैसे ही चक्री ने अपनी ऋद्धि को नहीं देखा। स्त्रीरत्न सुनंदा आदि रानियों का विलाप सुनकर भी मन से जरा भी चलायमान नहीं हुआ। ६ महीने तक सनत्कुमार मुनि के पीछे-पीछे चौदह रत्न, नौ निधि, सेना, सेवक आदि चलते रहे, परंतु उन्होंने उनकी ओर देखा तक नहीं। सनत्कुमार मुनि दो-दो उपवास के अनन्तर पारणा करते थे। पारणे में भी आंबिल आदि तप करते थे। इस तरह विग्गई (विकृतिजनक पदार्थ) का त्यागकर धर्म के प्रति अनुराग रखकर सब रोगों
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