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________________ बाहुबलि का दृष्टांत गयें ॥१४॥ श्री उपदेश माला गाथा २५ इसीलिए हमारा खयाल है भरत हमसे जबर्दस्ती सत्ता के बल पर हमारा राज्य छीन लेगा और हमें उसकी चाकरी ( गुलामी) करनी पड़ेगी। परंतु राज्य हमें पिताजी (ऋषभदेव) ने दिया है। उनके कहे बिना हम भरत को राज्य नहीं देंगे। अतः उनके पास चलकर ही निपटारा कर लें। और बड़े भाई के नाते प्रेम से उनकी सेवा कर सकते हैं, लेकिन उनके दबाव में रहकर गुलामी से नहीं। सभी भाईयों ने ऐसा निर्णय किया और वे सब श्री ऋषभदेव के पास पहुँचें। उनको वन्दन कर हाथ जोड़कर अपना सर्व वृत्तांत निवेदन किया- "प्रभो ! भरत मदोन्मत्त बनकर हमारा राज्य छीनना चाहता है। हम कहाँ जाएँ? हम तो आपके द्वारा दिये गये एक-एक देश के राज्य से ही संतुष्ट हैं। परंतु भरत ६ खण्ड के राज्य से भी संतुष्ट नहीं। " भगवान् उनकी बात सुनकर बोले कि - "पुत्रो ! नरकगति प्राप्त कराने वाली राज्यलक्ष्मी से क्या लाभ? इस जीव ने अनंत बार राजलक्ष्मी प्राप्त की है, फिर भी इस जीव को संतोष नहीं हुआ। इस राजलक्ष्मी का विलास स्वप्न के समान है। " कहा है कि स्वप्ने यथाऽयं पुरुषः प्रयाति, ददाति, गृह्णाति, करोति, वक्ति । निद्राक्षये तच्च न किञ्चिदस्ति, सर्वं तथेदं हि विचार्यमाणम् ||१५| अर्थात् यह जीव जैसे स्वप्न में चलता है, देता है, ग्रहण करता है, कुछ कार्य करता है, अथवा बोलता है, परंतु जब निद्रा खुल जाती है तो उसमें से कुछ भी (कोई भी क्रिया) नहीं होता । विचार करने पर संसार के सभी पदार्थ ऐसे ही स्वप्नवत् प्रतीत होंगे ||१५|| और भी कहा हैसंपदो जलतरङ्गविलोला, यौवनं त्रिचतुराणि दिनानि । शारदाभ्रमिव चञ्चलमायुः, किं धनैः कुरुत धर्ममन्निद्यम् ||१६|| अर्थात् - सम्पदाएँ जल की तरंगों के समान चंचल हैं; यौवन तीन-चार दिनों का है, आयुष्य शरदऋतु के बादल की तरह चंचल है; अतः धन बटोरने से क्या लाभ? अनिन्द्य ( संसार में निर्दोष) धर्म की आराधना करो ||१६|| " इसीलिए हे पुत्रों ! जमीन के टुकड़े पर, सांसारिक वस्तुओं पर इतना मोह - विलास क्यों कर रहे हो? किसका पुत्र ? किसका राज्य ? और किसकी स्त्री ? कोई भी साथ जाने वाला नहीं है।" कहा भी है 48. द्रव्याणि तिष्ठन्ति गृहेषु नार्यो, विश्रामभूमौ स्वजना: श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे, कर्मानुगो याति स एव जीवः ||१७|| अर्थात् - मृत्यु हो जाने पर धन घर में ही पड़ा रहता है; नारी विश्राम
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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