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________________ वेष की उपयोगिता भी श्री उपदेश माला गाथा २३-२५ ___भावार्थ - धर्म की रक्षा का मुख्य कारण वेष है। वेष चारित्रधर्म की रक्षा करता है। किसी भी प्रकार के पापकार्य में प्रवृत्त होते समय चारित्रधारी "मैं मुनि वेष धारण किया हुआ साधु हूँ, दीक्षित हूँ' ऐसा विचार कर एकदम लज्जित होता है। मुझे ऐसा कार्य करना योग्य नहीं है। अत: चारित्रमार्ग से गिरते हुए की वेष से रक्षा होती है। जैसे राजा के भय से प्रजाजन उन्मार्ग में नहीं जाते। यदि प्रजाजन उन्मार्ग में जा रहे हों तो भी राजा के डर से वापस सुमार्ग पर आ जाते हैं। अतः मुनिवेष व्यक्ति को उन्मार्ग से रोकता है ।।२२।। अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्टिओ अप्पसखिओ धम्मो । ' अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावओ होइ ॥२३॥ शब्दार्थ- आत्मा ही अपने आप (आत्मा) को यथार्थ (यथास्थित) रूप से जानता है। इसीलिए आत्म-साक्षी का धर्म ही प्रमाण है। इससे आत्मा को वही क्रियानुष्ठान करना चाहिए, जो अपने (आत्मा के) लिए सुखकारी हो।।२३।। भावार्थ - अपनी आत्मा शुभ परिणामवाली है अथवा अशुभ परिणामवाली है, इसका (अपनी स्थिति का यथार्थ) ज्ञान अपनी आत्मा को होता है। क्योंकि दूसरे की चित्तवृत्ति को छद्मस्थ जीव नहीं जान सकता। इसीलिए आत्म-साक्षी का धर्म ही प्रमाण रूप है। आत्मा को वही क्रिया, धर्म या अनुष्ठान आदि-उसी प्रकार करना चाहिए, जो अपने लिये इस जन्म और अगले जन्म में सुखकारी हो ।।२३।। जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण । सो तम्मि तम्मि समए, सुहासुहं बंधए कम्म ॥२४॥ शब्दार्थ - जीव जिस जिस समय जैसे-जैसे भाव करता है, उस-उस समय वह शुभ या अशुभ कर्म बाँधता है ।।२४।। भावार्थ - समय अतिसूक्ष्म काल को कहते हैं। आत्मा जैसे शुभ या अशुभ परिणाम करता है, वैसे ही शुभ या अशुभ कर्मों को बांधता है। अर्थात् शुभ परिणाम से शुभ कर्म और अशुभ परिणाम से अशुभ कर्म बांधता है। इसीलिए शुभभाव से ही क्रिया-अनुष्ठान आदि करना चाहिए; अभिमान आदि दूषित भाव से नहीं ॥२४॥ इस सम्बन्ध में और स्पष्टीकरण करते हैं धम्मो मएण हुँतो, तो नवि सीउण्हवायविज्झडिओ । संवच्छरमणसिओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२५॥ 46
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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