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________________ . काय श्री उपदेश माला गाथा २१-२२ केवल वेश की अप्रमाणिकता उसी समय उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसके प्रभाव से देव एकत्रित होकर अब नृत्य गीतवाद्य आदि उत्सव कर रहे हैं।" . प्रभु के मुखारविंद से समाधान पाकर श्रेणिक राजा को आश्चर्यमिश्रित हर्ष हुआ। इसके फलस्वरूप वह बार-बार अपना सिर हिलाने लगा और संदेहरहित होकर प्रभु को भक्ति भाव पूर्वक वंदना नमस्कार कर अपने स्थान को लौटा। भगवान् ने भी अन्यत्र विहार किया। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि भी बहुत समय तक केवली-अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करते हुए अंत में निर्वाण को प्राप्त हुए मुक्ति धाम पहुँचे। - इस दृष्टांत का सार यह है कि आत्मसाक्षी से आचरण किया हुआ अनुष्ठान ही पुण्य या पाप का फल देने वाला होता है ॥२०॥ केवल वेष की अप्रमाणिकता बतातें हैं येसोवि अप्पमाणो, असंजमपएसु वट्टमाणस्स । किं परियत्तिययेसं, विसं न मारेइ खजंतं ॥२१॥ शब्दार्थ - असंयम-मार्ग में चलने वाले मुनि का वेष भी अप्रमाण है। क्या वेष बदल लेने वाले मनुष्य को जहर खाने पर वह मारता नहीं? अवश्य मारता है ।।२१।। भावार्थ - षट्काय (प्राणियों) का आरंभ आदि करने वाले मुनि के लिए रजोहरण (ओघा) आदि वेष व्यर्थ है। केवल मुनिवेष लेने मात्र से आत्मशुद्धि नहीं होती। इस विषय में दृष्टांत देकर समझाते हैं-मान लो, कोई व्यक्ति गृहस्थवेष छोड़कर मुनिवेष धारण कर ले और जहर खा ले, तो क्या वह जहर उसे मुनिवेष होने से मारेगा नहीं? इसी प्रकार दुष्ट मन रूपी विष असंयममार्ग में चलने वाले मुनि का वेष होने पर भी अनेक जन्म-मरण आदि कुफल देता ही है ॥२१॥ कोई यह कहे तो कि 'तो फिर वेष की क्या आवश्यकता है? केवल भावशुद्धि ही क्यों न रखी जाय?' इसके उत्तर में कहते हैं धम्मं रक्खड़ येसो, संकइ वेसेण दिक्खिओमि अहं । उम्मग्गेण पडतं, रक्खड़ राया जणवउव्य ॥२२॥ शब्दार्थ - वेष धर्म की रक्षा करता है। वेष होने से (समणोऽह) 'मैं दीक्षित हूँ,' ऐसा जानकर किसी बुरे कार्य में प्रवृत्त होने में खुद शंकित होगा। जैसे राजा जनपद (देश) की रक्षा करता है, वैसे ही उन्मार्ग में गिरते हुए व्यक्ति की वेष भी रक्षा करता है ।।२२।। - 45
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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