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________________ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा श्री उपदेश माला गाथा २० वचन सुनकर वह ऋषि ध्यान से चलित हो गये थे और शत्रु के साथ मन ही मन युद्ध करने लगे थे। तुम तो यह समझते थे कि यह महामुनीश्वर है, एकाग्र मन से ध्यान कर रहा है; परंतु उस समय उसने वैरी के साथ मन से ही घमासान युद्ध छेड़ रखा था। उस युद्ध के कारण सातवीं नरक के आयुष्यकर्म के दलिक उसने एकत्रित कर लिये थे। परंतु निकाचितरूप से कर्म का बन्ध नहीं हुआ था। उसके बाद जब तुम उनको वंदनकर यहाँ पहुँचे, तब तक उन्होंने मन से युद्ध करते-करते मनःकल्पित शस्त्रों से सब शत्रुओं को मार दिया था। मनःकल्पित सर्व-शस्त्र खत्म हो गये थे, और तो सभी शत्रु भी नष्ट हो गये, मगर एक शत्रु बाकी रह गया, वह सामने आ खड़ा हुआ। अब शस्त्र तो उनके पास रहे नहीं। तब प्रसन्नचन्द्र ने रौद्रध्यान के आवेश में मन ही मन सोचा-"अरे! मेरे सिर पर लोहे का मुकुट तो है। उससे शत्रु को क्यों न मार डालूं।" यों सोचकर ज्यों ही उन्होंने शत्रु पर प्रहार . करने के हेतु लोह का मुकुट उतारने के लिए सिर पर हाथ मारा त्यों ही उनका हाथ अपने मुंडित सिर पर पड़ा। सहसा उनका रौद्र-ध्यान वापिस धर्म-ध्यान की ओर मुड़ा। शुभ चिन्तन की किरणें फूट पड़ीं-धिक्कार है मुझे! अज्ञान में अंधा बनकर मैं रौद्रध्यान में मग्न हो गया। मैंने यह क्या चिन्तन कर डाला? मैंने सर्व सावध संग का त्यागकर वैराग्यपूर्वक योग (मुनिपद) धारण किया है; भोगों का वमन किया है; ऐसा युद्ध करना मेरे लिये सर्वथा अयोग्य है। किसका पुत्र! किसकी प्रजा! और किसका अन्तःपुर! अरे दुरात्मन्! तूने यह क्या अधम विचार किया? विचार ही नहीं, अधमाधम आचरण भी कर लिया! संसार की तमाम वस्तुएँ अनित्य है। अनित्य वस्तुओं के लिए तेरी इतनी तीव्रता! चला विभूतिः क्षणभङ्गियौवनं, कृतान्तदन्तान्तर्वर्तिजीवितम् । तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने, अहो! नृणां विस्मयकारिचेष्टितम् ॥१२।। अर्थात् - यह ऐश्वर्य चंचल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन यमराज के दांतों के बीच में दबा हुआ है। फिर भी मनुष्य परलोक की साधना में अवज्ञा करता है, अहो! मनुष्य कितनी आश्चर्यजनक चेष्टाएँ करता है! ॥१२॥ इस तरह क्रमशः शुभध्यान में लीन होकर प्रसन्नचन्द्र मुनि प्रतिक्षण दुष्ट-अतिदुष्ट अध्यवसाय से बंधे हुए कर्मदलिकों के मूल उखाड़ने लगे और उसी शुभ अध्यवसाय के बल से सात नरकों में ले जाने वाले कर्मदलों को छेदकर उत्तरोत्तर क्रमशः सर्वार्थसिद्ध विमान तक जाने के योग्य कर्मदलों को उन्होंने इकट्ठा कर लिया और अपनी बढ़ती हुई शुभ परिणामधारा से परमपद प्राप्ति के कारण भूत क्षपक श्रेणि का आश्रय लिया और घातिकर्मों को नष्ट कर दिये। 44
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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