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संबाधन राजा का दृष्टांत एवं आत्म साक्षी से धर्म श्री उपदेश माला गाथा १६-२० से धन निकालने लगे। उस समय उन शत्रु राजाओं ने किसी नैमित्तिक से पूछा"हमारी जय होगी या नहीं?" नैमित्तिक ने पंचांग से लग्नंबल देखकर कहा'आप सब मिलकर विजय की अभिलाषा रखते हैं; लेकिन संबाधन राजा की पटरानी के गर्भ के प्रभाव से आपकी पराजय होगी।" ऐसा सुन सभी शत्रु निराश हो वापस चले गयें। सभी नागरिक खुश हुए और कहने लगे - " अहो ! गर्भस्थ राजपुत्र का प्रभाव तो देखो, जिसके प्रभाव से सब शत्रु भाग गयें। गर्भस्थिति पूर्ण होने के बाद पुत्र का जन्म हुआ। अशुचिकर्म पूर्ण होने के बाद उसका नाम अंगवीर्य रखा। क्रमशः वह युवान हुआ और उसने राजगद्दी पर बैठकर चिरकाल तक प्रजा का पालन किया। इस तरह हजार राजकन्याएँ होने पर भी राज्य का रक्षण नहीं हो सका। मगर एक ही गर्भस्थित पुत्र ने रक्षण किया। "
लौकिक-व्यवहार में भी ऐसी नीति है; इसीलिए धार्मिक व्यवहार में भी ऐसी ही नीति अपनायी गयी कि 'सर्वत्र पुरुष ही श्रेष्ठ है;' इसीलिए एक दिन के दीक्षित साधु का भी साध्वियों को विनय करना चाहिए। इस प्रकार पूर्वगाथा के साथ इस कथन का सम्बन्ध है || १७ - १८ ॥
अब आगे की गाथा में इसी बात को स्पष्ट करते हैंमहिलाण सुबहुयाणवि, मज्झाओ इह समत्थघरसारो । रायपुरिसेहिं निज्जइ, जणेवि पुरिसो जहिं नत्थि ॥१९॥ शब्दार्थ - इस जगत् में जिसके घर में पुत्र नहीं होता, वहाँ बहुतसी महिलाओं के रहते हुए भी समस्त घर का सार (धन) राजपुरुष ले जाते
हैं ।। १९ ।।
भावार्थ - अपुत्र का धन राजा ले जाता है, ऐसा जगत् का नियम है। जिसके घर में कोई पुत्र न हो और पिता मर जाय तो उसका धन बहुत-सी स्त्रियों और पुत्रियों के होने पर भी राजा ले जाता है; (यानी राजा अपने कब्जे में कर लेता है।) इसीलिए पुरुष प्रधान है ॥१९॥
अब धर्म आत्मसाक्षी से करने के लिए कहते हैं
किं परजण- बहुजाणायणाहिं, वरमप्पसक्खियं सुकयं । इह भरहचक्कवट्टी, पसन्नचंदो य दिट्ठता ॥२०॥ शब्दार्थ - दूसरे लोगों को बहुत (धर्मक्रिया) बताने से क्या मतलब? सुकृत आत्मसाक्षिक करना ही श्रेष्ठ है। इस विषय में भरतचक्रवर्ती और प्रसन्नचन्द्र का
दृष्टांत जानें ||२०||
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