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श्री उपदेश माला गाथा २०
भरतचक्रवर्ती का दृष्टांत भावार्थ - मैंने यह अनुष्ठान (धर्माचरण या धर्मध्यान) किया; इस प्रकार बहुत से मनुष्य दूसरे लोगों को बताते या कहते फिरते हैं। पर दूसरों को अपनी धर्मकरणी बताने यां कहने से क्या लाभ? हे आत्मन्! आत्मसाक्षिक सुकृत-धर्म करना ही सर्वश्रेष्ठ है। इस विषय में भरत चक्रवर्ती का उदाहरण देना उचित होगा, जिसने आत्मसाक्षिक अनुष्ठान से सिद्धि-सुख प्राप्त किया है। प्रसन्नचन्द्र का दृष्टांत भी इस बारे में बोधरूप है। पहले हम भरतचक्री का दृष्टांत देते हैं
भरतचक्रवर्ती का दृष्टांत अयोध्या नगरी में ऋषभदेवजी के बड़े पुत्र भरत चक्रवर्ती बन ने वाले थे। ऋषभदेवजी ने संयम-ग्रहण के समय अपने सौ पुत्रों को अपने-अपने नाम से अंकित देश दिये। बाहुबली को बहली देश में तक्षशिला का राज्य दिया और भरत को अयोध्या नगरी का राज्य दिया। एक समय भरत राज्यसभा में बैठा था, उस समय यमक और शमक नाम के दो पुरुष बधाई देने राज्यसभा के मुख्य द्वार पर आये। प्रतिहारी ने उनके आगमन का भरत को निवेदन किया। भरत राजा ने भ्रूसंज्ञा से द्वारपाल को उन्हें लिवा लाने की अनुमति दी। यमक
और शमक राजसभा में आये और हाथ जोड़कर भरत महाराज की आशीर्वादपूर्वक स्तुति की। पहले यमक ने अर्ज की- 'देव! पुरिमतालपुर के शकट नाम के उद्यान में श्री ऋषभदेव स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। अतः आपको मैं बधाई देने आया हूँ।' उसके बाद शमक ने कहा कि-"देव! आपकी आयुधशाला (शस्त्रागार) में हजार देवों से सेवित, करोड़ सूर्यों की तरह प्रकाश देने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।" इस तरह दोनों के मुख से बधाई सुनकर बड़ी खुशी हुई और भरत महाराज ने उन्हें जीवनभर चल सके उतना धन देकर उनका सन्मान किया।
उसके बाद भरत महाराज सोचते हैं- "मैं पहले कौन-सा उत्सव करूँ, केवलज्ञान का अथवा चक्र का?" यों विचारों में वे गहरे डूब गये। सहसा उनके विचारों में भूकम्प का-सा झटका लगा। उनके अन्तर्मन से ये उद्गार निकल पड़े-"धिक्कार है मुझे! मैंने यह क्या विचार किया? अक्षय सुख देने वाले पिता कहाँ और कहाँ संसारसुख का हेतुभूत चक्ररत्न? जिस धर्म की कृपा से चक्र प्राप्त हुआ है, उस धर्ममूर्ति पिता की पूजा करने से ही चक्र की पूजा हो जाती है।" ऐसा निश्चय कर पुत्रमोह से संतप्त 'ऋषभ ऋषभ' की निरंतर रट लगाती
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