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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४-६ भगवान् महावीर की तपस्या, क्षमा और दृढ़ता अब वीर परमात्मा की क्षमा (कष्टसहिष्णुता) का उपदेश देते हैंजड़ ता तिलोगनाहो, विसहइ बहुआई असरिसजणस्स । इअ जीयंतकराई, एस खमा सव्यसाहूणं ॥४॥ शब्दार्थ - यदि तीन लोक के नाथ श्री तीर्थकर ने नीच लोगों के द्वारा दिये गये प्राणान्त अनेक प्रकार के कष्ट सहन किये हैं, तो सर्व साधुओं को ऐसी क्षमा (तितिक्षा) धारण करनी चाहिए ।।४।। भावार्थ - तीन जगत् के स्वामी श्री महावीर प्रभु को संगम आदि देव तथा गोप आदि नीच मनुष्यों ने प्राणान्त उपसर्ग दिये। भगवान् ने अनन्त शक्तिशाली होने पर भी उन पर क्षमा की। किसी पर भी क्रोध नहीं किया। इसी तरह सर्व मुनियों को क्षमा धारण करनी चाहिए। भगवान् के इस महान् अनुष्ठान (पराक्रम) को हृदय में धारण कर सामान्य (अज्ञ) मनुष्यों द्वारा किये गये ताड़ना तर्जना आदि उपसर्गों को मुनि सहन करें, यह इस गाथा का सारांश है।।४॥ अब भगवान की दृढ़ता का वर्णन करते हैं न चइज्जड़ चालेउ, महइ-महावद्धमाणजिणचंदो । उवसग्गसहस्सेहिं वि, मेरु जहा वायगुंजाहिं ॥५॥ शब्दार्थ - जैसे मेरु पर्वत को प्रबल झंझावात चलायमान नहीं कर सकता; वैसे ही, मोक्षमति वाले महान् जिनचन्द्र श्री वर्धमान स्वामी को हजारों उपसर्ग चलायमान नहीं कर सके ।।५।। भावार्थ - जिनचन्द्र श्री वर्धमान स्वामी, मेरुपर्वत के समान अचल थे। जैसे मेरुपर्वत को महाप्रचंड अन्धड़ चलायमान नहीं कर सकता; वैसे ही देवों, मनुष्यों या तिर्यंचों के द्वारा किये गये हजारों उपसर्ग भी प्रभु को ध्यान से चलायमान करने में समर्थ न हो सके। इसी कारण से देवों ने उनका नाम 'महावीर' रखा। इस दृष्टान्त को ध्यान में रखकर अन्य मुनियों को भी प्राणान्त उपसर्ग होने पर भी ध्यान से विचलित नहीं होना चाहिए ॥५॥ अब गणधर के दृष्टान्त से शिष्य को विनयगुण का उपदेश देते हैंभद्दो विणीयविणओ, पढम् गणहरो समत्त-सुअनाणी । जाणंतोवि तमच्छं, विम्हिअहियओ सुणइ सव्वं ॥६॥ शब्दार्थ - भद्र और विशेष विनय वाले प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी समस्त श्रुतज्ञानी थे, उसके अर्थ को जानते थे, फिर भी जब प्रभु कहते थे, 23
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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