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भगवान् महावीर की तपस्या, क्षमा और दृढ़ता श्री उपदेश माला गाथा २-३
जगचूडामणिभूओ, उसमो वीरो तिलोयसिरितिलओ ।
एगो लोगाइच्चो, एगो चख्खू तिहुयणजणस्स ॥२॥
शब्दार्थ - जगत् में मुकुट मणि के समान, श्री ऋषभदेव तथा त्रिलोक के मस्तक में तिलक समान श्री महावीर स्वामी हैं। उनमें एक तो जगत् में सूर्यसमान हैं और दूसरे त्रिभुवन-जनों के लिए चक्षु रूप है।।२।।
भावार्थ - जैसे मनुष्य के शरीर पर मुकुट शोभा देता है; वैसे ही इस जगत् में मुकुट के समान आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान् सुशोभित हो रहे हैं। और चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु कैसे हैं? त्रिभुवन के मस्तक में तिलक-समान। जैसे मानव का मुख पर तिलक से शोभा देता है, वैसे ही तीनों जगत् में तिलक के समान श्री वीर परमात्मा सुशोभित है। इन दोनों तीर्थंकरों में प्रथम श्री ऋषभदेव भगवान् को सूर्य की उपमा दी है; क्योंकि अज्ञान अथवा मिथ्यात्व रूपी अंधकार का नाश कर जगत् के सभी जीवों को मोक्षमार्ग बताने से वे सूर्य के समान हैं। और चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी को चक्षु की उपमा दी है। अर्थात् वे तीनों जगत् के जीवों को ज्ञान रूपी नेत्र देने से चक्षु रूप हैं ॥२॥
१. अब दोनों तीर्थंकर भगवंतों द्वारा आचरित तप रूप चरित्र का उपदेश देते हैं- .
संवच्छरमुसभजिणो, छम्मासा वद्धमाणजिणचंदो । इअ विहरियानिरसणा, जएज्ज एओवमाणेणं ॥३॥
शब्दार्थ - श्री ऋषभदेव भगवान् ने एक वर्ष तक और जिनचन्द्र श्रीवर्धमान स्वामी ने छह महीने तक आहार पानी रहित विहार किया था। इसी दृष्टांत से दूसरों को भी तप में उद्यम करना चाहिए ।।३।।
. भावार्थ - श्री प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान् ने (उत्कृष्ट) एक वर्ष का तप किया था, और जिनचन्द्र श्री वर्धमान स्वामी ने (उत्कृष्ट) छह महीने का तप किया था। श्री वर्धमान स्वामी सर्वगुणों में प्रधान होने से उन्हें जिनचन्द्र की उपमा दी गयी है। इस प्रकार ये दोनों तीर्थंकर भगवन्त आहार रहित होने पर भी विहार करते थे। इस दृष्टान्त से गुरु शिष्य को उपदेश देते हैं कि "जैसे तीर्थंकर परमात्मा ने उत्कृष्ट तप किया था, वैसे तुम्हें भी तप में यथाशक्ति उद्यम करना चाहिए। क्योंकि उत्तम पुरुष के उदाहरण से दूसरे मनुष्यों को प्रवृत्ति करना योग्य है"1 ॥३॥ 1. हेयोपादेया टीका में वर्धमानसूरि कृत टीका में श्री ऋषभदेव एवं श्रीवीर भगवान का पूर्ण चरित्र दिया हुआ है।
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