SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनय एवं गुरु की महत्ता श्री उपदेश माला गाथा ७-८ तब वे उन सब अर्थों (बातों) को विस्मित-हृदयवाले होकर सुनते थें! ।।६।। भावार्थ - भद्र यानी कल्याणकारी, मंगलरूप और अत्यन्त विनयी प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी सर्वश्रुतज्ञान के पारगामी (श्रुतकेवली) थे। वे शास्त्रों के सभी भावों को जानते हुए भी पहले स्वयं भगवान् से पूछते थे, फिर जब भगवान् उसके उत्तर में जो कुछ कहते उसे गौतमस्वामी विशेष जानने की दृष्टि से और प्रफुल्लित आँखों वाले होकर सुनते थे। इस तरह अन्य शिष्यों को भी (स्वयं जानते हुए भी विशेष जानने एवं ज्ञात को दृढ़ करने हेतु) विनयपूर्वक गुरु से प्रश्न पूछना चाहिए और गुरु महाराज जो कुछ कहें, उसे विनयपूर्वक सुनना चाहिए ।।६।। अब विनय पर लौकिक दृष्टान्त देते हैं जं आणवेड़ राया, पगईओ' तं सिरेण इच्छंति । इअ गुरुजणमुद्भणिअं, क्यंजलिउडेहिं सोयव्यं ॥७॥ शब्दार्थ - राजा जो आज्ञा देता है, उस आज्ञा को सेवक और प्रजाजन शिरोधार्य करते हैं; उसी तरह गुरुजन अपने मुख से जो कहते हैं, उसे शिष्यों को हाथ जोड़कर सुनना चाहिए ।।७।। भावार्थ - स्वामी, अमात्य, सुहृद, भंडार, देश, किला और सेना ये राज्य के सात अंग हैं। इन सप्तांगों के स्वामी को राजा कहते हैं। वह राजा जो कहता है, प्रजाजन व सेवक लोग उस कार्य को मस्तक पर चढ़ाते हैं और उसी तरह करते हैं। उसी तरह गुरु महाराज शास्त्र, उपदेश आदि जो भी कहते हैं, उसे भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर और विनययुक्त होकर शिष्य समुदाय को सुनना चाहिए। क्योंकि शिष्यों के लिए विनयगुण की ही प्रधानता है ॥७।। अब गुरु का महत्त्व बताते हैं जह सुरगणाण इंदो, गहगणतारगणाण जह चंदो । जह य पयाण नरिंदो, गणस्सवि गुरु तहा णंदो ॥८॥ शब्दार्थ - जैसे देवताओं के समूह में इन्द्र, ग्रह गणों में एवं तारा गणों में चन्द्रमा और प्रजाओं में राजा श्रेष्ठ है; वैसे ही साधुसमूह में आनन्दप्रदायक गुरु श्रेष्ठ हैं ॥८॥ ___भावार्थ - देवसमूह में जैसे इन्द्र श्रेष्ठ माना जाता है; मंगल आदि ग्रह ८८ है और तारे संख्या में क्रोडाकोड़ी हैं; परन्तु इन सब ज्योतिषी देवों में चन्द्र 1. पयइओ 24
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy